संघ लोक सेवा आयोग (UPSC)का परिचय
संघ लोक सेवा आयोग(Union Public Service Commission – UPSC) भारत का एक संवैधानिक और स्वायत्त निकाय है, जिसकी स्थापना संविधान के अनुच्छेद 315 के अधीन की गई है। यह आयोग देश की प्रशासनिक, पुलिस, राजनयिक और अन्य शीर्ष सेवाओं में अधिकारियों की चयन प्रक्रिया निष्पक्षता, पारदर्शिता और योग्यता के आधार पर करता है।
यह न केवल प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित करता है , बल्कि संघ लोक सेवा आयोग(Union Public Service Commission – UPSC) भारत सरकार के लिए एक महत्वपूर्ण सलाहकार निकाय के रूप में भी कार्य करता है, जो इसे भारत के सबसे प्रतिष्ठित और प्रभावशाली संस्थानों में से एक बनाता है।
यह लेख भारतीय संविधान, भारत सरकार अधिनियम 1935, UPSC वार्षिक रिपोर्ट और अन्य प्रामाणिक ऐतिहासिक और शैक्षणिक स्रोतों के आधार पर विश्लेषणात्मक रूप में राष्ट्र निर्माण में UPSC की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, संरचना, कार्यप्रणाली और भूमिका को प्रस्तुत करता है।
संघ लोक सेवा आयोग का ऐतिहासिक विकास
भारत की सिविल सेवाओं की जड़ें ब्रिटिश काल में मिलती हैं, जब ईस्ट इंडिया कंपनी के सिविल सेवकों को कंपनी के निदेशकों द्वारा नामांकन के माध्यम से चुना जाता था और लंदन के हैलीबरी कॉलेज में प्रशिक्षित किया जाता था। 1854 में लॉर्ड मैकाले की ब्रिटिश संसद को दी गई रिपोर्ट के पश्चात एक बड़ा परिवर्तन हुआ, जिसमें प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से संरक्षण-आधारित प्रणाली को योग्यता-आधारित सिविल सेवा से प्रतिस्थापित करने की सिफारिश की गई थी। परिणामस्वरूप, इसी वर्ष लंदन में सिविल सेवा आयोग की स्थापना की गई और 1855 में परीक्षाएँ शुरू हुईं।
शुरुआत में भारतीय सिविल सेवा की परीक्षाएँ केवल लंदन में आयोजित की जाती थीं। अधिकतम आयु 23 वर्ष और न्यूनतम आयु 18 वर्ष थी। पाठ्यक्रम इस तरह से बनाया गया था कि यूरोपीय क्लासिक्स के अंकों का प्रमुख हिस्सा होता था। इन सब बातों ने भारतीय उम्मीदवारों के लिए इसे कठिन बना दिया। कठिनाइयों के बावजूद, 1864 में रवींद्रनाथ टैगोर के भाई सत्येंद्रनाथ टैगोर परीक्षा पास करने वाले पहले भारतीय बने। तीन साल बाद 4 अन्य भारतीयों को सफलता मिली।अगले दशकों में, भारतीयों ने लगातार मांग की कि भारत में परीक्षाएँ आयोजित की जाएँ, जो 1922 में मोंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधारों के बाद ही साकार हुई। पहली भारतीय सिविल सेवा परीक्षा इलाहाबाद में और बाद में दिल्ली में आयोजित की गई।
सामान रूप से, स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय (इंपीरियल) पुलिस में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी होते थे, जिन्हें राज्य सचिव द्वारा प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से नियुक्त किया जाता था। पुलिस सेवा के लिए पहली खुली प्रतियोगिता जून, 1893 में इंग्लैंड में आयोजित की गई थी, और 10 शीर्ष उम्मीदवारों को प्रोबेशनरी सहायक पुलिस अधीक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। इंपीरियल पुलिस में प्रवेश भारतीयों के लिए 1920 के बाद ही खोला गया था और अगले वर्ष सेवा के लिए परीक्षाएं इंग्लैंड और भारत दोनों में आयोजित की गईं।
वन सेवा की शुरुआत भारत में 1864 में, ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा ‘इंपीरियल वन विभाग’ की स्थापना से हुई। इसका उद्देश्य देश के वन संसाधनों का प्रबंधन करना था। इसके कार्यों को सुचारू संचालन के लिए, 1867 में ‘इंपीरियल वन सेवा’ का गठन किया गया, जिसमें वन अधिकारियों की नियुक्ति की गई। प्रारम्भ में अधिकारियों को फ्रांस और जर्मनी में प्रशिक्षित किया जाता था, परन्तु 1905 तक, उन्हें लंदन के कूपर्स हिल में प्रशिक्षण दिया गया। 1920 में, भर्ती प्रक्रिया में बदलाव किए गए, जिसमें इंग्लैंड और भारत दोनों में सीधी भर्ती और भारत में प्रांतीय सेवा से पदोन्नति के माध्यम से अधिकारियों की नियुक्ति शामिल थी। स्वतंत्रता के बाद, 1951 के अखिल भारतीय सेवा अधिनियम के अधीन 1966 में ‘भारतीय वन सेवा’ की स्थापना की गई, जिसने देश के वन संसाधनों के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
ब्रिटिश भारत में केंद्रीय सिविल सेवाओं को उनकी प्रकृति, वेतनमान और नियुक्ति प्राधिकारी के आधार पर वर्गीकृत किया गया था। 1887 में एचिंसन आयोग ने इन्हें शाही, प्रांतीय और अधीनस्थ सेवाओ में विभाजित किया।
- शाही सेवाएँ- राज्य सचिव के अधीन थीं और ज्यादातर ब्रिटिश नागरिकों की नियुक्ति होती थी।
- प्रांतीय सेवाएँ- संबंधित प्रांतीय सरकार के नियंत्रण में थीं और उनके नियम भारत सरकार की मंजूरी से बनते थे।
- अधीनस्थ सेवाएँ- स्थानीय प्रशासन की जरूरतों को पूरा करती थीं।
1919 के भारतीय अधिनियम के पश्चात, शाही सेवाओं को अखिल भारतीय सेवाओं तथा केंद्रीय सेवाओं में विभाजित किया गया। केंद्रीय सेवाएँ सीधे केंद्र सरकार के नियंत्रण में थीं और इनमें रेलवे, डाक और तार सेवा, और सीमा शुल्क सेवा जैसी महत्वपूर्ण सेवाएँ शामिल थीं।
इनमें से कुछ के लिए, राज्य सचिव नियुक्तियाँ करते थे, लेकिन अधिकांश मामलों में उनके सदस्यों की नियुक्ति और नियंत्रण भारत सरकार द्वारा किया जाता था।
भारत में लोक सेवा आयोग की अवधारणा 5 मार्च, 1919 को भारतीय संवैधानिक सुधारों के दौरान सामने आई। उस समय, सरकार ने सेवा मामलों के विनियमन के लिए एक स्थायी कार्यालय स्थापित करने की आवश्यकता व्यक्त की थी।
1919 के भारत सरकार अधिनियम ने इस विचार को एक ठोस रूप दिया। अधिनियम की धारा 96 (सी) में भारत में एक लोक सेवा आयोग की स्थापना का प्रावधान किया गया है, जो “भारत में लोक सेवाओं की भर्ती और नियंत्रण के संबंध में ऐसे कार्य करेगा, जो राज्य सचिव परिषद द्वारा बनाए गए नियमों द्वारा उसे सौंपे जाएं।”
इस आयोग का मुख्य उद्देश्य निष्पक्ष और पारदर्शी भर्ती प्रक्रियासुनिश्चित करना था, जिससे प्रशासन में योग्यता और दक्षता को प्राथमिकता दी जा सके।
भारत सरकार अधिनियम, 1919 की धारा 96 (c) के प्रावधानों और लोक सेवा आयोग की शीघ्र स्थापना के लिए 1924 में ली आयोग(भारत में सुपीरियर सिविल सेवाओं पर रॉयल कमीशन) द्वारा की गई मजबूत सिफारिशों के पश्चात , 1 अक्टूबर, 1926 को भारत में पहली बार लोक सेवा आयोग की स्थापना की गई थी। इसमें अध्यक्ष के अलावा चार सदस्य शामिल थे। यूनाइटेड किंगडम के गृह सिविल सेवा के सदस्य सर रॉस बार्कर आयोग के पहले अध्यक्ष थे।
बाद में, भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने एक संघीय लोक सेवा आयोग और अलग-अलग प्रांतीय आयोगों का प्रावधान किया। 26 जनवरी, 1950 को भारत के संविधान को अपनाने के साथ, संघीय लोक सेवा आयोग का नाम बदलकर संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) कर दिया गया। संविधान के अनुच्छेद 378(1) के तहत मौजूदा अध्यक्ष और सदस्यों को फिर से नियुक्त किया गया।
वर्ष | प्रमुख उपलब्धि |
1854 | ब्रिटिश सरकार ने भारतीय सिविल सेवा (ICS) के लिए मेरिट-आधारित परीक्षा शुरू की। |
1926 | भारत में पहला लोक सेवा आयोग स्थापित किया गया। |
1935 | भारत सरकार अधिनियम के अधीन लोक सेवा आयोग को संवैधानिक दर्जा मिला। |
1950 | UPSC को अनुच्छेद 315 के अधीन एक स्वायत्त निकाय के रूप में औपचारिक रूप से स्थापित किया गया। |
1976 | UPSC को अधिक स्वायत्तता मिली, जिससे निष्पक्ष भर्ती प्रक्रिया सुनिश्चित हुई। |
2024 | प्रति वर्ष 10 लाख से अधिक उम्मीदवार UPSC परीक्षा में आवेदन करते हैं। |
संवैधानिक प्रावधान
संघ लोक सेवा आयोग के संबंध में भारतीय संविधान के भाग 14 के अध्याय 2 में अनुच्छेद 315 से 323 तक किया गया है । जिसे निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है ।
अनुच्छेद 315 – लोक सेवा आयोगों की स्थापना
संविधान के अनुच्छेद 315(1) में प्रावधान किया गया है कि केंद्र के लिए संघ लोक सेवा आयोग(upsc ) एवं प्रत्येक राज्य के लिए राज्य लोक सेवा आयोग (state psc) होगा । अर्थात
- केंद्रीय स्तर पर – संघ लोक सेवा आयोग(upsc ) ।
- राज्य स्तर पर- राज्य लोक सेवा आयोग (state psc) ।
संयुक्त लोक सेवा आयोग– अनुच्छेद 315(2) में संयुक्त लोक सेवा आयोग की स्थापना का उपबंध किया गया है । जब दो या अधिक राज्य मिलकर अपने लिए एक लोक सेवा आयोग बनाने के लिए करार करते है । यदि इसका संकल्प प्रत्येक राज्य के विधान-मण्डल के सदन द्वारा तथा जहां दो सदन है वहाँ पर दोनों सदनों द्वारा इसे पारित किया गया है । तब संसद उनकी जरूरतों के हिसाब से उनके लिए एक लोक सेवा आयोग का गठन करेगी । इसे संयुक्त लोक सेवा आयोग के नाम से जाना जाता है ।
अनुच्छेद 316 – यूपीएससी के सदस्यों की नियुक्ति एवं कार्यकाल
यूपीएससी के सदस्यों नियुक्ति पदावधि से समबंधित उपबंध अनुच्छेद 316 में किए गए हैं । इसके अनुसार संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है ।
संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के सदस्यों में आधे ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिन्होंने भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन कम से कम दस वर्ष तक पद धारण किया हो ।
यूपीएससी की संरचना
- यूपीएससी एक बहु-सदस्यीय निकाय है जिसमें शामिल हैं:
- अध्यक्ष – भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त।
- सदस्य – आम तौर पर, व्यापक प्रशासनिक अनुभव वाले 9-11 सदस्य।
- सचिवालय – प्रशासनिक कार्यों और समन्वय का समर्थन करता है।
कार्यकाल:
संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के सदस्य अपने पद ग्रहण करने की तारीख से 6 वर्ष तक या 65 वर्ष की आयु तक पद धारण करते हैं । इन दोनों में जो भी पहले हो ।
अनुच्छेद 317 – यूपीएससी के सदस्यों का हटाया जाना एवं निलंबन
संघ लोक सेवा आयोग(UPSC) के अध्यक्ष या उसके सदस्य को कदाचार (Misbehavior) के आधार पर राष्ट्रपति के आदेश से हटाया जा सकता है। इसके लिए राष्ट्रपति निम्नलिखित प्रक्रिया का अनुपालन करते हैं :
राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) को, जांच के लिए निर्देश देते हैं। उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) अनुच्छेद 145 के अधीन निर्मित नियमों के अनुसार इसकी जांच करता है और अपना प्रतिवेदन राष्ट्रपति को भेजता है । इस आधार पर यूपीएससी के अध्यक्ष या सदस्य को उनको पद से हटाया जा सकता है । यदि निम्नलिखित आधार है तो राष्ट्रपति जांच के बिना ही आदेश के माध्यम से हटा सकेगा :
- यदि वह दिवालिया घोषित हो जाता है।
- यदि वह अपने कार्यकाल में किसी अन्य सवेतन पद (paid employment) को स्वीकार करता है।
- यदि वह राष्ट्रपति की राय में मानसिक या शारीरिक अशक्तता (incapacity) के कारण कार्य करने में असमर्थ हो जाए ।
निलंबन :
जब उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) द्वारा जांच की जाती है । तब ऐसी जांच का प्रतिवेदन प्राप्त होने तक राष्ट्रपति, यूपीएससी के अध्यक्ष या सदस्य को अस्थायी रूप से निलंबित कर सकेगा ।
अनुच्छेद 318 – सेवा की शर्तों के संबंध में विनियम बनाने की शक्ति
राष्ट्रपति संघ लुक सेवा आयोग विनियमों के द्वारा –
- आयोग के सदस्यों की संख्या और उनकी सेवा की शर्तों का अवधारण कर सकेगा; और
- आयोग के कर्मचारिवृंद के सदस्यों की संख्या और उनकी सेवा की शर्तों के संबंध में उपबंध कर सकेगा:
जब कोई व्यक्ति लोक सेवा आयोग का सदस्य बन जाता है, तो उसकी सेवा की शर्तें में उसके कार्यकाल के दौरान परिवर्तित नहीं की जाएगी, यदि वे उसके लिए नुकसानदायक हों।
अनुच्छेद 319 – यूपीएससी कार्यकाल के पश्चात अन्य रोजगार का निषेध
जब कोई व्यक्ति संघ लोक सेवा आयोग अध्यक्ष रह लेता है, तो वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन किसी भी नियोजन के लिए पात्र नहीं होता है । यदि वह सदस्य है तब वह संघ लोक सेवा या राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियोजित हो सकता है । इसके अलावा वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन किसी भी नियोजन के लिए पात्र नहीं होता है ।
संघ लोक सेवा आयोग के कार्य
यूपीएससी केवल परीक्षा आयोजित करने वाली संस्था नहीं है; यह भारत के शासन के में भी कई आवश्यक भूमिकाएँ निभाती है।अनुच्छेद 320 के अनुसार इसके कुछ प्रमुख कार्यों में शामिल हैं:
भर्ती परीक्षा आयोजित करना
यूपीएससी को सिविल सेवा परीक्षा (CSE) आयोजित करने के लिए जाना जाता है, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS), भारतीय पुलिस सेवा (IPS) और भारतीय विदेश सेवा (IFS) के लिए अधिकारियों का चयन करती है। अन्य प्रमुख यूपीएससी परीक्षाओं में शामिल हैं:
- इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा (ESE)
- संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा(CDS)
- राष्ट्रीय रक्षा अकादमी परीक्षा (NDA)
- भारतीय वन सेवा परीक्षा(IFS)
- केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल परीक्षा(CAPF)
- रक्षा संस्थानों में अभियोजन अधिकारियों की परीक्षा (Apo and po )
आदि
प्रमुख पदों के लिए सीधी भर्ती
प्रतियोगी परीक्षाओं के अतिरिक्त, यूपीएससी वरिष्ठ सरकारी पदों पर सीधी भर्ती के लिए साक्षात्कार और व्यक्तित्व परीक्षण का आयोजन करता है।
सरकार के लिए सलाहकार की भूमिका
यूपीएससी भारत के राष्ट्रपति को विभिन्न भर्ती नियमों, अनुशासनात्मक कार्रवाइयों और सिविल सेवकों से संबंधित सेवा मामलों पर सलाह देता है।
विभिन्न सेवाओं तथा पदों के लिए भर्ती नियम तैयार करना
यूपीएससी भारत सरकार के अधीन विभिन्न सेवाओं तथा पदों के लिए भर्ती नियम तैयार करना तथा उनमें संशोधन करता है ।
पदोन्नति और स्थानांतरण
यह सरकारी विभागों में अखिल भारतीय सेवाओं (AIS) के अधिकारियों की पदोन्नति और प्रतिनियुक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
निष्कर्ष :
संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) सिर्फ एक परीक्षा आयोजित करने वाली संस्था नहीं है, बल्कि यह देश में योग्यता और पारदर्शिता का प्रतीक है। इसकी निष्पक्ष प्रक्रिया और संवैधानिक अधिकार इसे शासन व्यवस्था का एक अहम हिस्सा बनाते हैं।
UPSC समय के साथ बदल रहा है और लाखों लोगों के लिए एक प्रतिष्ठित प्रशासनिक भूमिका का सपना बना हुआ है। आने वाले समय में सुधार, नई तकनीक और समावेशिता इसे और मजबूत बनाएंगे, जिससे भारत की सिविल सेवाएँ वैश्विक स्तर पर और अधिक प्रभावी बन सकेंगी।
यदि आप सिविल सेवक बनने की सोच रहे हैं, तो UPSC की भूमिका को समझना पहला और सबसे जरूरी कदम है।