विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963
Specific Relief Act,1963
[अधिनियम क्र. 47 सन् 1963]
[13 दिसम्बर, 1963]
कतिपय प्रकारों के विनिर्दिष्ट अनुतोष से संबंधित विधि को परिभाषित एवं संशोधित करने हेतु एकअ धिनियम।भारत गणराज्य के चौदहवें वर्ष में संसद द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो।
भाग 1 प्रारंभिक
1.संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ- (1) इस अधिनियम को विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 कहा जा सकेगा ।
(2) इसका विस्तार [***] सम्पूर्ण भारत में होगा ।
(3) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जिसे केन्द्रीय सरकार शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा नियत करे ।
2.परिभाषाएँ- इस अधिनियम में, जब तक सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो :
(क) बाध्यता के अन्तर्गत विधि द्वारा प्रवर्तनीय प्रत्येक कर्त्तव्य आता है;
(ख) व्यवस्थापन से अभिप्रेत है, कोई लिखत [भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (1925 का 39) द्वारा यथा परिभाषित किसी इच्छापत्र (विल) या क्रोडपत्र से भिन्न] जिसके द्वारा जंगम या स्थावर सम्पत्ति के क्रमवर्ती हितों का गंतव्य अथवा न्यागमन का व्ययन किया जाता है अथवा व्ययन किया जाना तय किया जाता है;
(ग) न्यास का वही अर्थ है, जो भारतीय न्यास अधिनियम, 1882 (1882 का 2) की धारा 3 में है, और इसके अन्तर्गत उस अधिनियम के अध्याय 9 के अर्थ के भीतर किसी न्यास की प्रकृति में कोई बाध्यता भी है।
(घ) न्यासी के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति है, जो न्यास में सम्पत्ति धारण किये हुए है;
(ङ) अन्य सभी शब्दों एवं अभिव्यक्तियों, जो इसमें प्रयुक्त की गई परन्तु परिभाषित नहीं की गई, और भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) में परिभाषित की गई है, के वही अर्थ होंगे जो उस अधिनियम में उन्हें क्रमशः समनुदेशित किये गए हैं।
3. व्यावृत्तियाँ–
एतस्मिन अन्यथा उपबंधित के सिवाय, इस अधिनियम की किसी बात से यह नहीं समझा जाएगा कि :
(क) किसी व्यक्ति को, विनिर्दिष्ट पालन से भिन्न अनुतोष के किसी अधिकार से वंचित करती है जो उसे किसी संविदा के अधीन है; या
(ख) दस्तावेजों पर भारतीय रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 के प्रवर्तन को प्रभावित करती है।
4. विनिर्दिष्ट अनुतोष केवल व्यक्तिगत सिविल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिये दिया जाना और दाण्डिक विधियों को प्रवर्तित कराने के लिये नहीं–
विनिर्दिष्ट अनुतोष केवल सिविल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के प्रयोजन के लिये दिया जा सकता है और किसी दाण्डिक विधि को प्रवर्तित कराने मात्र के प्रयोजन के लिये नहीं।
भाग 2 : विनिर्दिष्ट अनुतोष
अध्याय 1: सम्पत्ति के कब्जे का प्रत्युद्धरण
5. विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति का प्रत्युद्धरण–
विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति के कब्जे का कोई व्यक्ति, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) द्वारा उपबंधित रीति में उसे प्रत्युद्धरित कर सकेगा।
6. स्थावर सम्पत्ति से बेकब्जा किये गए व्यक्ति द्वारा वाद–
(1) यदि कोई व्यक्ति उसकी सम्मति के बिना, स्थावर सम्पत्ति से, विधि के सम्यक् अनुक्रम से अन्यथा, बेकब्जा कर दिया गया है, तो वह अथवा कोई ऐसा व्यक्ति, जिसके माध्यम से उसका कब्जा रहा है अथवा उसके माध्यम से दावा कर रहा कोई व्यक्ति, वाद द्वारा, उसका कब्जा प्रत्युद्धरित कर सकेगा, किसी अन्य हक के होते हुए जो ऐसे वाद में स्थापित किया जा सके।
(2) इस धारा के अधीन कोई वाद :
(क) बेकब्जा किये जाने की दिनांक से छः माह के अवसान के पश्चात्; या
(ख) शासन के विरुद्ध, नहीं लाया जाएगा ।
(3) इस धारा के अधीन संस्थित किसी वाद में पारित किसी आदेश या डिक्री से कोई अपील नहीं होगी, ना ही ऐसे किसी आदेश या डिक्री का कोई पुनर्विलोकन मंजूर किया जाएगा ।
(4) इस धारा की कोई बात ऐसी सम्पत्ति पर उसका हक स्थापित करने हेतु वाद लाने और उसका कब्जा
प्रत्युद्धरित करने से किसी व्यक्ति को वर्जित नहीं करेगी ।
7. विनिर्दिष्ट जंगम सम्पत्ति का प्रत्युद्धरण–
विनिर्दिष्ट जंगम सम्पत्ति के कब्जे का हकदार कोई व्यक्ति, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 द्वारा उपबंधित रीति में उसका प्रत्युद्धरण कर सकेगा ।
स्पष्टीकरण 1 – कोई न्यासी इस धारा के अधीन जंगम सम्पत्ति के कब्जे के लिये वाद ला सकेगा जिसके फायदाप्रद हित का वह व्यक्ति हकदार हो जिसके लिए वह न्यासी है ।स्पष्टीकरण 2- जंगम सम्पत्ति के वर्तमान कब्जे का कोई विशेष या अस्थायी अधिकार इस धारा के अधीन किसी वाद का समर्थन करने हेतु पर्याप्त है .
8. कब्जा धारण करने वाले व्यक्ति का, जो स्वामी के नाते नहीं है, अव्यवहित कब्जे के हकदार व्यक्तियों को परिदत्त करने का दायित्व–
कोई व्यक्ति जिसका जंगम सम्पत्ति की किसी विशिष्ट वस्तु पर कब्जा या नियंत्रण है, जिसका वह स्वामी नहीं है, उसके अव्यवहित कब्जे के हकदार व्यक्ति को उसे परिदत करने लिये, निम्नलिखित किन्हीं भी दशाओं में विनिर्दिष्टतः बाध्य किया जा सकेगा :
(क) जब दावाकृत वस्तु प्रतिवादी द्वारा वादी के अभिकर्ता या न्यासी के रूप में धारित हो;
(ख) जब धन के रूप में प्रतिकर, दावाकृत वस्तु की हानि के लिये बादी को यथायोग्य अनुतोष प्रदान नहीं
करता हो; हो;
(ग) जब उसकी हानि द्वारा कारित वास्तविक नुकसान को अभिनिश्चित करना अत्यंत कठिन हो;
(घ) जब दावाकृत वस्तु का कब्जा वादी से दोषपूर्वक अन्तरित कराया गया हो ।
स्पष्टीकरण : जब तक और जहाँ तक तत्प्रतिकूल साबित न किया जाए, न्यायालय, इस धारा के खण्ड (ख) या खण्ड (ग) के अधीन दावाकृत जंगम सम्पत्ति की किसी वस्तु की बाबत उपधारणा करेगा
(क) कि धन के रूप में प्रतिकर, दावाकृत वस्तु की हानि के लिये वादी को यथायोग्य अनुतोष प्रदान नहीं
करेगा, या, यथास्थिति;
(ख) कि उसकी हानि द्वारा कारित वास्तविक नुकसान को अभिनिश्चित करना अ त्यंतकठिन होगा ।
अध्याय 2 : संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन
9. संविदा पर आधारित अनुतोष के लिये वादों में प्रतिरक्षाएँ– एतस्मिन अन्यथा उपबन्धित के सिवाय, जहाँ किसी संविदा की बाबत इस अध्याय के अधीन कोई अनुतोष का दावा किया गया है, व्यक्ति जिसके विरुद्ध अनुतोष का दावा किया गया है, प्रतिरक्षा के रूप में किसी आधार का अभिवचन कर सकेगा जो संविदाओं से सम्बन्धित किसी विधि के अधीन उसे उपलब्ध हो ।
10. संविदाओं की बाबत विनिर्दिष्ट पालन– न्यायालय द्वारा किसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन धारा 11 की उपधारा (2), धारा 14 और धारा 16 में अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन रहते हुए कराया जाएगा।
11. दशाएँ जिनमें न्यासों के साथ सम्बद्ध संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन प्रवर्तनीय है– (1) इस अधिनियम में
अन्यथा उपबंधित के सिवाय, किसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन, कराया जाएगा जब किये जाने के लिये करारित कार्य किसी न्यास के पूर्णतः या अंशतः पालन में हो।
(2) किसी न्यासी द्वारा उसकी शक्तियों से बाहर या के भंग में की गई प्रवर्तित नहीं कराई जा सकती।
12. संविदा के भाग का विनिर्दिष्ट पालन– (1) इस धारा में इसके पश्चात् अन्यथा उपबंधित के सिवाय
न्यायालय किसी संविदा के किसी भाग का विशिष्ट पालन निर्देशित नहीं करेगा।
(2) जहाँ किसी संविदा का कोई पक्षकार उसमें के उसके सम्पूर्ण भाग का पालन करने में असमर्थ हो किन्तु वह भाग जो अपालित रह जाना है मूल्य में पूरे भाग के अनुपात में बहुत कम हो और धन के रूप में प्रतिकर हो सकता है, तो न्यायालय, दोनों में से किसी पक्षकार के वाद पर संविदा का उतना विनिर्दिष्ट पालन करने का निदेश दे सकेगा जितना पालन किया जा सकता है और कमी के लिये धन के रूप में प्रतिकर अधिनिर्णीत कर सकेगा।
(3) जहाँ किसी संविदा का कोई पक्षकार उसमें के उसके सम्पूर्ण भाग का पालन करने में असमर्थ हो, और वह भाग जो अपालित रह जाना है या तो–
(क) सम्पूर्ण का कोई प्रचुर भाग हो यद्यपि धन के रूप में प्रतिकर हो सकता हो, या
(ख) धन के रूप में प्रतिकर नहीं हो सकता हो,तो वह विनिर्दिष्ट पालन के लिये कोई डिक्री प्राप्त करने का हकदार नहीं है किन्तु न्यायालय, दूसरे पक्षकार के वाद पर, व्यतिक्रम करने वाले पक्षकार को संविदा के उतने भाग का विनिर्दिष्टतः पालन करने का निदेश दे सकेगा जितना वह पालन कर सकता है, यदि दूसरा पक्षकार–
(i) खण्ड (क) के अधीन आने वाली किसी दशा में, उस भाग के लिये जो अपालित रह जाना है, प्रतिफल घटाकर, संविदा के सम्पूर्ण के लिये कारित प्रतिफल दे दे वा दे चुका हो और खण्ड (ख) के अधीन आने वाली किसी दशा में, बिना किसी कमी के संविदा के सम्पूर्ण के लिये प्रतिफल दे दे या दे चुका हो; और
(ii) दोनों में से प्रत्येक दशा में, संविदा के बाकी भाग के पालन के समस्त दावों और या तो कमी के लिये या प्रतिवादी के व्यतिक्रम के कारण उसके द्वारा उठाई गई हानि या नुकसान के लिये, प्रतिकर के समस्त अधिकारों को त्याग दे ।
(4) जब किसी संविदा का कोई भाग, जो उसके स्वयं के द्वारा लिया जाए, का विनिर्दिष्टतः पालन किया जा सकता है और किया ही जाना चाहिए, उसी संविदा के अन्य भाग, जिसका विनिर्दिष्टतः पान नहीं किया जा सकता या किया ही नहीं जाना चाहिए, से पृथक् औ आधार पर खड़ा हो तो न्यायालय पूर्ववर्ती भाग के विनिर्दिष्ट पालन का निदेश दे सकेगा ।
स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजनों के लिये, किसी संविदा का कोई पक्षकार आने के उसके सम्पूर्ण भाग का
पालन करने में असमर्थ माना जाएगा यदि उसकी विषय-वस्तु का कोई भाग संविदा की दिनांक को विद्यमान हो, उसके पालन के समय विद्यमान न रह जाए।
13. क्रेता या पट्टेदार के उस व्यक्ति के विरुद्ध अधिकार जिसका कोई एक नहीं अपूर्ण हक़ है– (1) जहाँ कोई
व्यक्ति, जिसका कोई हक नहीं या केवल कोई अपूर्ण हक है, कतिपय स्थावर सम्पति के विक्रय या पट्टे पर देने
की संविदा करता है, तो क्रेता या पट्टेदार के इस अध्याय के अन्य उपबंधों के अध्यधीन निम्नलिखित अधिकार
है, अर्थात् :
(क) यदि विक्रेता या पट्टाकर्ता ने संविदा के बाद सम्पत्ति में कोई हित अर्जित किया है, या पट्टेदार ऐसे हित में से संविदा की पूर्ति करने के लिए उसे बाध्य कर सकेगा;
(ख) जहाँ हक की विधिमान्यता के लिये अन्य व्यक्तियों की सहमति आवश्यक है, और वे विक्रेता या पट्टाकर्ता
के निवेदन पर सहमत होने के लिये बाध्य हैं, तो क्रेता या पट्टेदार ऐसी सहमति उपाप्त करने के लिये उसे बाध्य
कर सकेगा, और जब हक को विधिमान्य करने के लिये अन्य व्यक्ति द्वारा कोई हस्तांतरण आवश्यक हो और
वे विक्रेता या पट्टाकर्ता के निवेदन पर हस्तांतरण करने के लिये बाध्य हैं, तो क्रेता या पट्टेदार ऐसा हस्तांतरण
उपाप्त करने के लिये उसे बाध्य कर सकेगा;
(ग) जहाँ विक्रेता विल्लंगमरहित सम्पत्ति के विक्रय की प्रव्यंजना करे, किन्तु सम्पत्ति क्रय धन से अनधिक
किसी राशि के लिये बंधकित है और विक्रेता को वस्तुतः केवल उसके मोचन का अधिकार है, तो क्रेता उसे
बंधक के मोचन के लिये और विधिमान्य उन्मोचन और जहाँ आवश्यक हो, बंधकदार से कोई हस्तांतरण भी
अभिप्राप्त करने के लिये, बाध्य कर सकेगा।
(घ) जहाँ विक्रेता या पट्टाकर्ता संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद लाए और हक के अभाव में या अपूर्ण हक के आधार पर वाद खारिज हो जाए, तो प्रतिवादी को उसका निक्षेप,यदि कोई हो, उस पर ब्याज सहित, वापसी का, बाद के उसके खर्चे पाने का अधिकार है, और सम्पत्ति में विक्रेता या पट्टाकर्ता के ऐसे निक्षेप, ब्याज और ब्याज पर व्यय, यदि कोई हो, पर धारणाधिकार है, जो संविदा की विषयवस्तु है ।
(2) उपधारा (1) के उपबंध, जहाँ तक हो सके, जंगम सम्पत्ति के विक्रय वा भाड़े की संविदाओ पर भी लागू होंगे।
संविदाएँ जिनका विनिर्दिष्टतः पालन नहीं कराया जा सकता
14. ऐसी संविदाएं, जो विनिर्दिष्टतया प्रवर्तनीय नहीं है- निम्नलिखित संविदाओं को विनिर्दिष्टतया प्रवर्तित नहीं
कराया जा सकता, अर्थात् :
(क) जहां संविदा के किसी पक्षकार ने संविदा का प्रतिस्थापित पालन धारा 20 के उपबंधों के अनुसार
अभिप्राप्त कर लिया है;
(ख) कोई ऐसी संविदा, जिसके पालन में ऐसे किसी निरंतर कर्तव्य का पालन अंतर्बलित है, जिसका न्यायालय पर्यवेक्षण नहीं कर सकता;
(ग) कोई ऐसी संविदा, जो पक्षकारों की व्यक्तिगत अर्हताओं पर इतनी निर्भर है कि न्यायालय उसके तात्विक निबंधनों का विनिर्दिष्ट पालन नहीं करा सकता;
(घ) कोई ऐसी संविदा, जो अवधारणीय प्रकृति की है।
14क न्यायालय की विशेषज्ञों को नियुक्त करने की शक्ति– (1) सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) में अंतर्विष्ट उपबंधों की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, इस अधिनियम के अधीन किसी भी वाद में, जहां न्यायालय, वाद में अंतर्वलित किसी विनिर्दिष्ट विवाद्यक पर अपनी सहायता के लिए विशेषज्ञ की राय प्राप्त करना आवश्यक समझता है, वहां वह एक या अधिक विशेषज्ञ नियुक्त कर सकेगा और उन्हें ऐसे विवाद्यक पर उसको रिपोर्ट करने का निदेश दे सकेगा तथा साक्ष्य उपलब्ध कराने के लिए, जिसके अंतर्गत उक्त विवाद्यक पर दस्तावेजों का पेश किया जाना भी है, विशेषज्ञ की उपस्थिति सुनिश्चित कर सकेगा ।
(2) न्यायालय किसी व्यक्ति को, विशेषज्ञ को सुसंगत सूचना देने या कोई सुसंगत दस्तावेज, माल या अन्य संपत्ति को उसके निरीक्षण के लिए पेश करने या उस तक पहुंच उपलब्ध कराने की अपेक्षा कर सकेगा या उसे निदेश दे सकेगा ।
(3) विशेषज्ञ द्वारा दी गई राय या रिपोर्ट, बाद के अभिलेख का भाग होगी; और न्यायालय या न्यायालय की अनुज्ञा से बाद का कोई भी पक्षकार वैयक्तिक रूप से विशेषज्ञ को खुले न्यायालय में उसको निर्दिष्ट या उसकी राय या रिपोर्ट में उल्लिखित किसी भी विषय पर या उसकी राय या रिपोर्ट के बारे में 1 या उस रीति के बारे में, जिसमें उसने निरीक्षण किया है, परीक्षा कर सकेगा।
(4) विशेषज्ञ ऐसी फीस, खर्च या व्यय का हकदार होगा, जो न्यायालय नियत करे, जो पक्षकारों द्वारा ऐसे अनुपात में और ऐसे समय पर संदेय होंगे, जो न्यायालय निदेश करे ।
(व्यक्ति जिनके लिये या जिनके विरुद्ध संविदाएं विनिर्दिष्टतः प्रवर्तित की जा सकेंगी)
15. कौन विनिर्दिष्ट पालन अभिप्राप्त कर सकेगा– इस अध्याय द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, किसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन अभिप्राप्त किया जा सकेगा :
(क) उसके किसी पक्षकार द्वारा;
(ख) उसके किसी पक्षकार के हित प्रतिनिधि या प्रधान द्वारा:
परन्तु यह कि जहाँ ऐसे पक्षकार की विद्वता, कुशलता, शोधन क्षमता या कोई वैयक्तिक गुण संविदा में तात्विक अंग है या जहाँ संविदा उपबंधित करती है कि उसका हित समनुदेशित नहीं किया जाएगा, तो उसका हित प्रतिनिधि या उसका प्रधान, संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का हकदार नहीं होगा जब तक कि ऐसे पक्षकार द्वारा संविदा के उसके भाग का पहले ही पालन न कर दिया गया हो या उसका पालन उसके हित प्रतिनिधिया उसके प्रधान द्वारा किया जाना अन्य पक्षकार द्वारा स्वीकृत न कर लिया गया हो;
(ग) जहाँ संविदा, विवाह पर का व्यवस्थापन या एक ही परिवार के सदस्यों के मध्य शंकास्पद अधिकारों का समझौता हो, उसके अधीन फायदा पाने के हकदार किसी व्यक्ति द्वारा;
(घ) जहाँ किसी शक्ति के सम्यक् अनुपालन में आजीवन अभिधारी द्वारा संविदा की गई है, शेषभोगी द्वारा
(ङ) किसी सकब्जा उत्तरभोगी द्वारा, जहाँ करार उसके हक पूर्वाधिकारी के साथ की गई कोई प्रसंविदा हो और उत्तरभोगी ऐसी प्रसंविदा के फायदे का हकदार हो;
(च) किसी शेष के उत्तरभोगी द्वारा, जहाँ करार कोई ऐसी प्रसंविदा हो और उत्तरभोगी उसके फायदे का हकदार हो और इसके भंग के कारण तात्विक क्षति उठाएगा;
(चक) जब किसी सीमित दायित्व भागीदारी ने कोई करार किया है और तत्पश्चात् अन्य सीमित दायित्व भागीदारी कंपनी में समामेलित हो जाती है, वहां उस नई सीमित दायित्व भागीदारी द्वारा, जो समामेलन से उत्पन्न होती है ।]
(छ) जब किसी कंपनी ने कोई संविदा की हो और तत्पश्चात् अन्य कंपनी के साथ समामेलित हो जाए, तो नई कंपनी द्वारा को समामेलन से उत्पन्न हुई;
(ज) जब किसी कंपनी के संप्रवर्तकों ने, इसके निगमन के पूर्व, कंपनी के प्रयोजनों के लिये संविदा की हो और ऐसी संविदा निगमन के निबंधनों द्वारा समर्थित हो, तो कंपनी द्वारा:
परन्तु यह कि कंपनी ने संविदा स्वीकृत कर ली हो और ऐसी स्वीकृति संविदा के अन्य पक्षकार को संसूचित कर दी गई हो ।
16. अनुतोष का वैयक्तिक वर्जन- किसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन किसी व्यक्ति के पक्ष में प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता–
(क) जिसने धारा 20 के अधीन संविदा का प्रतिस्थापित पालन अभिप्राप्त कर लिया है; या
(ख) जो संविदा के अत्यावश्यक निबंधन जिसका उसकी ओर से पालन किया जाना बाकी हो, का पालन करने में असमर्थ हो गया हो या उसका अतिक्रमण करे या संविदा के प्रति कपट का कार्य करे, या संविदा द्वारा स्थापित किये जाने के लिये आशयित संबंध, से विसंवादी या का ध्वसंक कार्य जानबूझकर करे; या
(ग) जो यह साबित करने में विफल रहे कि संविदा के अत्यावश्यक निबंधन जो उसके द्वारा पालन किये जाने हैं, का उसने पालन कर दिया है या पालन करने को सदा तैयार और रजामंद रहा। है, उन निबंधनों से भिन्न जिनका पालन प्रतिवादी द्वारा निवारित या अधित्यक्त किया गया है।
स्पष्टीकरण: खण्ड (ग) के प्रयोजनों के लिये :
(i) जहाँ किसी संविदा में धन का संदाय अन्तर्वलित हो, वादी के लिये यह आवश्यक नहीं है कि कोई धन वास्तविक रूप में प्रतिवादी को निविदान करे या न्यायालय में निक्षेप करे सिवाय जबकि न्यायालय द्वारा ऐसा निदेशित किया गया हो;
(ii) वादी को संविदा का शुद्ध अर्थान्वयन के अनुसार पालन कर लेना, या पालन करने को तैयार तथा
रजामंद होना साबित करना होगा।
17. सम्पत्ति को विक्रय करने या पट्टे पर देने की संविदा ऐसे व्यक्ति द्वारा जिसका कोई हक नहीं, विनिर्दिष्टतः प्रवर्तनीय नहीं– (1) किसी स्थावर सम्पत्ति के विक्रय या पट्टे पर देने की कोई संविदा किसी विक्रेता या पट्टाकर्ता के पक्ष में विनिर्दिष्टतः प्रवर्तित नहीं की जा सकती-
(क) जिसने, यह जानते हुए कि सम्पत्ति पर उसका हक नहीं है, सम्पति के विक्रय या पट्टे पर देने की संविदा की हो;
(ख) जिसने, यद्यपि यह मानते हुए संविदा की थी कि सम्पत्ति पर उसका कोई वैध हक है, विक्रय या पट्टे को पूर्ण करने के लिये पक्षकारों द्वारा या न्यायालय द्वारा नियत समय पर क्रेता या पट्टेदार को मुक्तियुक्त शंकों से मुक्त कोई हक नहीं दे सकता संविदाओं पर भी लागू होंगे ।
(2) उपधारा (1) के उपबंध, जहाँ तक हो सके, जंगम सम्पत्ति के विक्रय या भाड़े के लिये संविदाओ पर भी लागू होंगे।
18. फेरफार के बिना अप्रवर्तन– जहाँ कोई वादी किसी लिखित संविदा का विनिर्दिष्ट पालन चाहता है जिसमें प्रतिवादी फेरफार होना अभिकथित करता है, वादी ऐसे अभिकथित फेरफार के बिना ईप्सित पालन निम्नलिखित दशाओं में अभिप्राप्त नहीं कर सकता, अर्थात् :
(क) जहाँ कपट, तथ्य की भूल या दुर्व्यपदेशन द्वारा लिखित संविदा जिसका पालन ईप्सित है उसके निबंधनों या प्रभाव में उससे भिन्न है जिससे कि पक्षकारों ने करार किया था या पक्षकारों के मध्य करारित समस्त निबंधन जिनके आधार पर प्रतिवादी ने संविदा की थी, अन्तर्विष्ट न हों;
(ख) जहाँ पक्षकारों का उद्देश्य कतिपय विधिक परिणाम को उत्पन्न करना था जो यथा विरचित संविदा से उत्पन्न होना प्रकल्पित न हो;
(ग) जहाँ पक्षकारों ने संविदा के निष्पादन में तत्पश्चात् उसके निबंधनों में फेरफार कर दिया हो ।
19. पक्षकारों एवं उनके अधीन पश्चात्वर्ती हक द्वारा दावा करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध अनुतोष– इस अधिनियम द्वारा यथा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, किसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन–
(क) उसमें के कोई पक्षकार;
(ख) संविदा के तत्पश्चात् उत्पन्न किसी हक द्वारा उसके अधीन दावा करने वाला किसी अन्य व्यक्ति, सिवाय किसी मूल्यार्थ अंतरिती के जिसने उसका धन सद्भावनापूर्वक और मूल संविदा की सूचना के बिना संदत्त किया हो;
(ग) किसी हक के अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति, जो, यद्यपि संविदा के पूर्व एवं बादी की जानकारी में, प्रतिवादी द्वारा विस्थापित किया जा सकता था;
(गक) जब किसी सीमित दायित्व भागीदारी ने कोई करार किया है और तत्पश्चात् अन्य सीमित दायित्व भागीदारी कंपनी में समामेलित हो जाती है, वहां वह नई सीमित दायित्व भागीदारी, जो समामेलन से उत्पन्न होती है ।]
(घ) जब किसी कंपनी ने कोई संविदा की हो और तत्पश्चात् अन्य कंपनी के साथ समामेलित हो जाए, तो नई कंपनी, जो समामेलन से उत्पन्न हुई;
(ङ) जब किसी कंपनी के संप्रवर्तकों ने, इसके निगमन के पूर्व, कंपनी के प्रयोजनों के लिये संविदा की हो और ऐसी संविदा निगमन के निबंधनों द्वारा समर्थित हो, तो कंपनी
परन्तु यह कि कंपनी ने संविदा स्वीकृत कर ली हो और ऐसी स्वीकृति संविदा के अन्य पक्षकार को संसूचित कर दी गई हो के विरुद्ध प्रवर्तित कराया जा सकेगा ।
(संविदाओं का प्रतिस्थापित पालन, आदि)
20. संविदा का प्रतिस्थापित पालन- (1) भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) में, अंतर्विष्ट उपबंधों की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना और उसके सिवाय, जिस पर पक्षकार सहमत हैं, जहां संविदा किसी पक्षकार के वचन का पालन नहीं करने के कारण टूट जाती है, वहां वह पक्षकार, जो ऐसे भंग से पीड़ित होता है, किसी तीसरे पक्षकार के माध्यम से या अपने स्वयं के अभिकरण द्वारा प्रतिस्थापित पालन का और ऐसा भंग करने वाले पक्षकार उसके द्वारा वास्तविक रूप से व्ययनित या भुगते गए व्ययों और अन्य खर्चों को वसूल करने का, विकल्प रखेगा।
(2) उपधारा (1) के अधीन संविदा का कोई भी प्रतिस्थापित पालन तब तक नहीं किया जाएगा, जब तक ऐसे पक्षकार ने, जो ऐसे भंग से पीड़ित है, भंग करने वाले पक्षकार को तीस दिन से अन्यून का लिखित में एक नोटिस, उससे ऐसे समय के भीतर संविदा का पालन करने के लिए कहते हुए, जो उस नोटिस में विनिर्दिष्ट हो, नहीं दे देता हो और उसका ऐसा करने से इन्कार करने या ऐसा करने में असफल रहने पर वह उसका पालन किसी तीसरे पक्षकार द्वारा या अपने स्वयं के अभिकरण द्वारा कराएगा:
परंतु; वह पक्षकार, जो ऐसे भंग से पीड़ित है, उपधारा (1) के अधीन व्ययों और खर्चों को वसूल करने का हकदार तब तक नहीं होगा, जब तक उसने किसी तीसरे पक्षकार के माध्यम से या अपने स्वयं के अभिकरण द्वारा संविदा का पालन न करा लिया हो ।
(3) जहां संविदा के भंग से पीड़ित पक्षकार ने उपधारा (1) के अधीन नोटिस देने के पश्चात् किसी तीसरे पक्षकार के माध्यम से या अपने स्वयं के अभिकरण द्वारा संविदा का पालन करा लिया है, वहां वह भंग करने वाले पक्षकार के विरुद्ध विनिर्दिष्ट पालन के अनुतोष का दावा करने का हकदार नहीं होगा ।
(4) इस धारा की कोई बात उस पक्षकार को, जो संविदा के भंग से पीड़ित है, भंग करने वाले पक्षकार से प्रतिकर का दावा करने से निवारित नहीं करेगी ।
20क, अवसंरचना परियोजना से संबंधित संविदा के लिए विशेष उपबंध- (1) इस अधिनियम के अधीन किसी वाद में अनुसूची में विनिर्दिष्ट अवसंरचना परियोजना से संबंधित संविदा में न्यायालय द्वारा कोई भी व्यादेश यहां मंजूर नहीं किया जाएगा, जहां व्यादेश की मंजूरी से ऐसी अवसंरचना परियोजना की प्रगति या पूरा होने में कोई अड़चन आती हो या विलंब होता हो ।
स्पष्टीकरण; इस धारा, धारा 20ख और धारा 41 के खंड (जक) के प्रयोजनों के लिए, अवसंरचना परियोजना पद से अनुसूची में विनिर्दिष्ट परियोजनाओं और अवसंरचना उप सेक्टरों के प्रवर्ग अभिप्रेत है।
(2) केन्द्रीय सरकार अवसंरचना परियोजनाओं की उभरती धारणा की अत्यावश्यकता पर निर्भर हुए और यदि ऐसा करना आवश्यक और समीचीन समझती है, तो राजपत्र में अधिसूचना द्वारा परियोजनाओं और अवसंरचना उप सेक्टरों के प्रवर्ग से संबंधित अनुसूची को संशोधित कर सकेगी।
(3) इस अधिनियम के अधीन जारी की गई प्रत्येक अधिसूचना को केन्द्रीय सरकार द्वारा यथाशीघ्र संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष, जब वह सत्र में हो, तीस दिन की कुल अवधि के लिए रखे जाएंगे, जो एक सत्र या दो या अधिक उत्तरवर्ती सत्रों में पूरी हो सकेगी और यदि पूर्वोक्त सत्र या उत्तरवर्ती सत्र के ठीक पश्चात् वाले सत्र के अवसान के पूर्व दोनों सदन, अधिसूचना में कोई उपांतरण करने के लिए सहमत होते हैं या दोनों सदन इस बात के लिए सहमत होते हैं कि ऐसी अधिसूचना जारी नहीं की जानी चाहिए, सो तत्पश्चात् अधिसूचना, यथास्थिति, ऐसे उपांतरित रूप में ही गावी होगी या निष्प्रभाव हो जाएगी तथापि अधिसूचना के ऐसे उपांतरित या निष्प्रभाव होने से उस अधिसूचना के अधीन पहले से की गई किसी बात की विधिमान्यता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा ।
20ख. विशेष न्यायालय– राज्य सरकार, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति के परामर्श से राजपत्र में प्रकाशित अधिसूचना द्वारा एक या अधिक सिविल न्यायालयों को अवसंरचना परियोजनाओं से संबंधित संविदाओं की बाबत अधिकारिता के प्रयोग के क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर और इस अधिनियम के अधीन बाद का विचारण करने के लिए विशेष न्यायालयों के रूप में अभिहित करेगी ।
20ग. वादों का शीघ्र निपटारा– सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी इस अधिनियम के उपबंधों के अधीन फाइल किए गए किसी वादका निपटारा न्यायालय द्वारा प्रतिवादी को समन की तामील से बारह मास की अवधि के भीतर किया जाएगा :
परन्तु उक्त अवधि को न्यायालय द्वारा ऐसी अवधि को बढ़ाने के लिए कारण लेखबद्ध करने के पश्चात्कुल मिलाकर छह मास से अनधिक की और अवधि के लिए बढ़ाया जा सकेगा ।
21. कतिपय दशाओं में प्रतिकर अधिनिर्णीत करने की शक्ति– (1) किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये लाए गए किसी वाद में, वादी, ऐसे पालन के [अतिरिक्त ] इसके भंग के लिये प्रतिकर का भी दावा करसकेगा ।
(2) यदि, ऐसे किसी वाद में, न्यायालय विनिश्चय करे कि विनिर्दिष्ट पालन स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, किन्तु पक्षकारों के मध्य कोई संविदा है जो प्रतिवादी द्वारा खंडित की गई है, और यह कि उस भंग के लिये वादी प्रतिकर का हकदार है, तो वह तद्नुसार ऐसा प्रतिकर अधिनिर्णीत करेगा ।
(3) यदि, ऐसे किसी वाद में, न्यायालय विनिश्चय करे कि विनिर्दिष्ट पालन स्वीकार किया जाना चाहिए, किन्तु मामले में न्याय की तुष्टि के लिए यह पर्याप्त नहीं हो और यह कि वादी को संविदा के भंग के लिये कुछ प्रतिकर भी दिया जाना चाहिए, तो वह तद्नुसार ऐसा प्रतिकर अधिनिर्णीत करेगा।
(4) इस धारा के अधीन अधिनिर्णीत किसी प्रतिकर की राशि के अवधारण में, न्यायालय भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) की धारा 73 में विनिर्दिष्ट सिद्धांतों द्वारा मार्गदर्शित होगा ।
(5) इस धारा के अधीन कोई प्रतिकर अधिनिर्णीत नहीं किया जाएगा जब तक कि वादी ने ऐसे प्रतिकर का उसके वादपत्र में दावा न किया हो :
परन्तु; यह कि जहाँ वादी ने ऐसे किसी प्रतिकर का वादपत्र में दावा न किया हो तो न्यायालय उसे, कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ऐसे प्रतिकर को दावे में सम्मिलित करने के लिये ऐसे निबंधनों पर जैसे कि न्यायसंगत हों, वादपत्र में संशोधन करना मंजूर करेगा।
स्पष्टीकरण; यह परिस्थिति कि संविदा विनिर्दिष्ट पालन किये जाने से असमर्थ हो गई है, न्यायालय को इस धारा द्वारा प्रदत्त अधिकारिता के प्रयोग से प्रवारित नहीं करती ।
22. कब्जे, विभाजन, अग्रिम धन के प्रतिदाय, इत्यादि के लिये अनुतोष के अनुदान की शक्ति– (1) सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 1908 का 5) में अन्तर्विष्ट किसी प्रतिकूल बात के होते हुए भी, कोई व्यक्ति जो स्थावर सम्पत्ति के अंतरण के लिये किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद लाता है, किसी समुचित मामले में–
(क) ऐसे पालन के अतिरिक्त, सम्पति का कब्जा, या विभाजन एवं पृथक् कब्जा ; या
(ख) विनिर्दिष्ट पालन के लिये उसके दावे के नामंजूर किये जाने की दशा में किसी अग्रिम धन या उसके द्वारा
संदत्त या किये गये निक्षेप को सम्मिलित करते हुए, अन्य कोई अनुतोष जिसका वह हकदार हो;
माँग सकेगा ।
(2) उपधारा (1) के खण्ड (क) या खण्ड (ख) के अधीन न्यायालय द्वारा कोई अनुतोष अनुदत्त नहीं किया जाएगा जब तक कि उसका विनिर्दिष्टतः दावा न किया गया हो :
परन्तु; यह कि जहाँ वादी ने ऐसे किसी अनुतोष का वादपत्र में दावा न किया हो तो न्यायालय उसे, कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ऐसे अनुतोष को दावे में सम्मिलित करने के लिये ऐसे निबंधनों पर जैसे कि न्यायसंगत हों, वादपत्र में संशोधन करना मंजूर करेगा ।
(3) उपधारा (1) के खण्ड (ख) के अधीन अनुतोष अनुदत्त करने की न्यायालय की शक्ति धारा 21 के अधीन इसकी प्रतिकर अधिनिर्णीत करने की शक्तियों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगी।
23. नुकसानी का परिनिर्धारण विनिर्दिष्ट पालन के लिये वर्जन नहीं– (1) कोई संविदा, जो अन्यथा विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन के लिये समुचित हो, यद्यपि इसके भंग होने की दशा में संदत की जाने वाली रकम के रूप में कोई राशि नामित हो और व्यतिक्रम करने वाला पक्षकार उसका संदाय करने को रजामन्द हो, उस प्रकार प्रवर्तित की जा सकेगी, यदि न्यायालय का संविदा के निबंधनों एवं अन्य विद्यमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, यह समाधान हो जाता है कि राशि केवल संविदा के पालन को सुनिश्चित करने के प्रयोजन के लिये नामित की गई थी और न कि व्यतिक्रम करने वाले पक्षकार को विनिर्दिष्ट पालन के स्थान में धन के संदाय का कोई विकल्प देने के प्रयोजन के लिये।
(2) जब इस धारा के अधीन विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन किया जाए, न्यायालय संविदा में इस प्रकार नामित
राशि के संदाय की डिक्री भी नहीं करेगा ।
24. विनिर्दिष्ट पालन के बाद के खारिज होने के पश्चात् भंग के लिये प्रतिकर के वाद का वर्जन– किसी संविदा या उसके भाग के विनिर्दिष्ट पालन के किसी वाद की खारिजी, ऐसी संविदा या भाग, जैसी स्थिति हो, के भंग के लिये प्रतिकर के लिये वाद लाने के वादी के अधिकार का वर्जन कर देगी, किन्तु किसी अन्य अनुतोष के लिये, जिसका वह ऐसे भंग के कारण हकदार हो, वाद लाने के उसके अधिकार का वर्जन नहीं करेगी।
(व्यवस्थापनों के निष्पादन हेतु पंचाटों एवं निदेशों का प्रवर्तन)
25. व्यवस्थापनों के निष्पादन हेतु कतिपय पंचाटों एवं वसीयती निदेशों पर पूर्ववर्ती धाराओं का लागू होना– संविदाओं के बारे में इस अध्याय के उपबंध, पंचाटों पर, जिन पर [माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996(1996 का 26)] लागू नहीं होता एवं किसी विशिष्ट व्यवस्थापन के निष्पादन हेतु किसी इच्छापत्र (विल) या क्रोडपत्र में निदेशों पर लागू होंगे।
अध्याय 3 : लिखतों की परिशुद्धि
26. कब लिखत परिशुद्ध किये जा सकेंगे – (1) जब, पक्षकारों के कपट या किसी परस्पर भूल के द्वारा, कोई संविदा या लिखित में अन्य कोई लिखत [किसी कंपनी के संगम अनुच्छेद न हों जिन पर कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) लागू होता है] उसका वास्तविक आशय अभिव्यक्त न करे, तब–
(क) दोनों में से कोई पक्षकार या उसका हित प्रतिनिधि लिखत को परिशोधित किये जाने के लिये कोई वाद संस्थित कर सकेगा; या
(ख) वादी, किसी वाद में जिसमें लिखत के अधीन उत्पन्न कोई अधिकार विवाद्य हो, उसके अभिवचन में दावा कर सकेगा कि लिखत को परिशोधित किया जाए; या
(ग) यथा खण्ड (ख) में निर्दिष्ट ऐसे किसी बाद में कोई प्रतिवादी, उसके लिये खुली किसी अन्य प्रतिरक्षा के अतिरिक्त, लिखत की परिशुद्धि की माँग कर सकेगा ।
(2) यदि, किसी वाद में जिसमें उपधारा (1) के अधीन किसी संविदा या अन्य लिखत में परिशुद्धि ईप्सित हो, न्यायालय निष्कर्ष निकाले कि लिखत, कपट या भूल द्वारा, पक्षकारों के वास्तविक आशय को अभिव्यक्त नहीं करती, तो न्यायालय उसके विवेकाधिकार से, लिखत की परिशुद्धि का निदेश दे सकेगा ताकि वह आशय अभिव्यक्त हो जाए, यह वहाँ तक किया जा सकेगा जहाँ तक सद्भावपूर्वक एवं मूल्यार्थ परव्यक्तियों द्वारा अर्जित अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव न डाले ।
(3) कोई लिखित संविदा पहले परिशोधित की जा सकेगी और तब यदि परिशुद्धि का दावा करने वाले पक्षकार ने उसके अभिवचन में ऐसा निवेदन किया है और न्यायालय ठीक समझे तो विनिर्दिष्टतः प्रवर्तित की जा सकेगी।
(4) किसी लिखत की परिशुद्धि के लिये कोई अनुतोष इस धारा के अधीन किसी पक्षकार को अनुदत्त नहीं किया जाएगा जब तक कि इसका विनिर्दिष्टतः दावा न किया गया हो :
परन्तु यह कि जहाँ पक्षकार ने ऐसे किसी अनुतोष का उसके अभिवचन में दावा न किये हो तो न्यायालय उसे, कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ऐसे दावे को सम्मिलित करने के लिये ऐसे निबंधनों पर जैसे कि न्यायसंगत हों, अभिवचनों में संशोधन करना मंजूर करेगा ।
अध्याय 4: संविदाओं का विखंडन
27. जहाँ विखंडन न्यायनिर्णीत या नामंजूर किया जा सकेगा– (1) किसी संविदा में हितबद्ध कोई व्यक्ति इसे विखंडित कराने के लिये वाद ला सकेगा और ऐसा विखंडन न्यायालय द्वारा निम्नलिखित में से किसी भी दशा में न्यायनिर्णीत किया जा सकेगा, अर्थात् :
(क) जहाँ संविदा वाटी द्वारा शून्यकरणीय या पर्यवसेय हो;
(ख) जहाँ देखते ही प्रकट न होने वाले कारणों से संविदा विधिविरुद्ध हो और प्रतिवादी का दोष वादी से अधिक हो ।
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, न्यायालय संविदा को विखंडित करने से इंकार कर सकेगा :
(क) जहाँ वादी ने अभिव्यवत या विवक्षित रूप से संविदा का अनुसमर्थन किया हो; या
(ख) जहाँ, परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण, जो संविदा के किये जाने के पश्चात् हुई हैं (स्वयं प्रतिवादी द्वारा किये गए कार्य के कारण न हुई हो), पक्षकारों को उस स्थिति मे सारभूत रूप से प्रत्यावर्तित नहीं किया जा सकता जिसमें वे थे जबकि संविदा की गई थी; या
(ग) जहाँ परव्यक्तियों ने, संविदा के अस्तित्व के दौरान, सूचना के बिना सदभावपूर्वक एवं मूल्यार्थ अधिकार अर्जित कर लिए हों; या
(घ) जहाँ संविदा के केवल किसी भाग का विखंडन ईप्सित हो और ऐसा भाग संविदा के अवशिष्ट भाग से पृथक्करणीय न हो ।
स्पष्टीकरण – इस धारा में, उन राज्यक्षेत्रों के संबंध में जिन पर सम्पत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (1882 का 4) विस्तारित नहीं होता,संविदा से अभिप्रेत है लिखित में कोई संविदा।
28. स्थावर सम्पत्ति के विक्रय या पट्टे के लिये संविदाओं का कतिपय परिस्थितियों में विखंडन, जिनके विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री की जा चुकी है–
(1) जहाँ किसी वाद में स्थावर सम्पत्ति के विक्रय या पट्टे के लिये किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये कोई डिक्री की जा चुकी हो और क्रेता या पट्टेदार, डिक्री द्वारा मंजूर की गई कालावधि या ऐसी अतिरिक्त कालावधि जो न्यायालय मंजूर करे, के भीतर क्रय धन या अन्य राशि जिसका संदाय उसे न्यायालय द्वारा आदेशित किया गया है, संदाय नहीं करता तो विक्रेता या पट्टाकर्ता उसी वाद में जिसमें डिक्री की गई है, संविदा विखंडित किये जाने का आवेदन कर सकेगा और ऐसे आवेदन-पत्र पर न्यायालय, आदेश द्वारा, संविदा या तो जहाँ तक व्यतिक्रम करने वाले पक्षकार के विषय में या सम्पूर्णतः, यथा मामले में न्याय द्वारा अपेक्षित हो, विखंडित कर सकेगा ।
(2) जहाँ उपधारा (1) के अधीन कोई संविदा विखंडित की गई हो, न्यायालय–
(क) क्रेता या पट्टेदार को निदेश देगा, यदि उसने संविदा के अधीन सम्पत्ति का कब्जा अभिप्राप्त कर लिया हो, तो विक्रेता या पट्टाकर्ता को ऐसा कब्जा प्रत्यावर्तित करे।
(ख) विक्रेता या पट्टाकर्ता को समस्त भाटकों एवं लाभों का संदाय किये जाने का, जो सम्पत्ति की बाबत उस दिनांक, जब क्रेता या पट्टेदार द्वारा इस प्रकार कब्जा अभिप्राप्त किया गया था, से विक्रेता या पट्टाकर्ता को कब्जा प्रत्यावर्तित करने तक प्रोद्भूत हुआ, और यदि मामले में न्याय द्वारा ऐसा अपेक्षित हो, संविदा के संबंध में क्रेता या पट्टेदार द्वारा अग्रिम धन या निक्षेप के रूप में संदत किसी राशि का प्रतिदाय करने का निदेश दे सकेगा।
(3) यदि क्रेता या पट्टेदार क्रय धन या अन्य राशि का संदाय करता है जिसका उसे डिक्री के अधीन उपधारा (1) में निर्दिष्ट कालावधि के भीतर संदाय करने का आदेश दिया गया हो, न्यायालय, उसी वाद में किये गए आवेदन-पत्र पर क्रेता या पट्टेदार को ऐसे अतिरिक्त अनुतोष जिसके वे हकदार हो, अधिनिर्णीत कर सकेगा, समुचित मामलों में निम्नलिखित समस्त या कोई अनुतोषों को सम्मिलित करते हुए, अर्थात् :–
(क) विक्रेता या पट्टाकर्ता द्वारा किसी उचित हस्तांतरण या पट्टे का निष्पादन
(ख) ऐसे हस्तांतरण या पट्टे के निष्पादन पर सम्पत्ति का कब्जा, या विभाजन एवं पृथक् कब्जे का परिदान |
(4) किसी अनुतोष की बाबत जिसका इस धारा के अधीन दावा किया जा सके, कोई पृथक् बाद, यथास्थिति, किसी विक्रेता, क्रेता, पट्टाकर्ता या पट्टेदार की प्रेरणा पर नहीं लाया जा सकेगा।
(5) इस धारा के अधीन किन्हीं भी कार्यवाहियों के व्यय न्यायालय के विवेक पर होंगे।
29. विनिर्दिष्ट पालन के बाद में विखंडन के लिये अनुकल्पिक प्रार्थना– किसी लिखित संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये कोई वाद संस्थित करने वाला कोई वादी, अनुकल्पतः प्रार्थना कर सकेगा कि यदि संविदा विनिर्दिष्टतः प्रवर्तित नहीं की जा सके तो यह विखंडित कर दी जाए और रद्द की जाने हेतु परिदत्त कर दी जाए और न्यायालय, यदि वह संविदा के विनिर्दिष्टतः पालन से इंकार करे तो तद्नुसार उसको विखंडित एवं परिदत्त किये जाने का निदेश दे सकेगा ।
30. न्यायालय विखंडित कराने वाले पक्षकारों से साम्या बरतने की अपेक्षा कर सकेगा– किसी संविदा का विखंडन न्यायनिर्णीत करने पर न्यायालय उस पक्षकार से, जिसे ऐसा अनुतोष अनुदत किया गया है, अपेक्षा कर सकेगा कि कोई लाभ जो उसने अन्य पक्षकार से प्राप्त किया हो, जहाँ तक हो सके, प्रत्यावर्तित करे और उसे कोई प्रतिकर दे जो न्याय द्वारा अपेक्षित हो।
अध्याय 5: लिखतों का रद्दकरण
31. कब रद्दकरण आदिष्ट किया जा सकेगा– (1) कोई व्यक्ति जिसके विरुद्ध कोई लिखित लिखत शून्य या शून्यकरणीय है, और जिसे युक्तियुक्त आशंका हो कि ऐसी लिखत, यदि विद्यमान छोड़ दी गई तो उसे गंभीर क्षति कारित हो सकती है, तो उसे शून्य या शून्यकरणीय न्यायनिर्णीत करने के लिये वाद ला सकेगा; और न्यायालय, स्वविवेकानुसार, इस प्रकार न्यायनिर्णीत कर सकेगा और परिदत्त एवं रद्द किये जाने का आदेश दे सकेगा।
(2) यदि लिखत भारतीय रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 का 16) के अधीन रजिस्ट्रीकृत की गई हो तो न्यायालय उसकी डिक्री की एक प्रति उस अधिकारी को भी भेजेगा जिसके कार्यालय में लिखत इस प्रकार रजिस्ट्रीकृत की गई और ऐसा अधिकारी उसकी पुस्तकों में अन्तर्विष्ट लिखत की प्रति पर उसके रद्दकरण के तथ्य का टिप्पण करेगा।
32. कौन सी लिखत भागतः रद्द की जा सकेंगी– जहाँ कोई लिखत विभिन्न अधिकारों या विभिन्न बाध्यताओं का साक्ष्य हों तो न्यायालय किसी समुचित मामले में, इसे भागतः रद्द कर सकेगा एवं अवशिष्ट के लिये इसे बना रहना मंजूर कर सकेगा।
33. जब लिखत रद्द की गई या शून्य अथवा शून्यकरणीय होने के रूप में सफलतापूर्वक प्रतिरोधित की गई, तो प्रत्यावर्तित किये जाने वाले फायदे या दिये जाने वाले प्रतिकर की अपेक्षा करने की शक्ति– (1) किसी लिखत का रद्दकरण न्यायनिर्णीत किये जाने पर, न्यायालय पक्षकार से अपेक्षा कर सकेगा जिसे ऐसा अनुतोष अनुदत्त किया गया हो, कि कोई फायदा जो उसने अन्य पक्षकार से प्राप्त किया हो, जहाँ तक हो सके, प्रत्यावर्तित करे और उसे कोई प्रतिकर दे जो न्याय अपेक्षित करे।
(2) जहाँ कोई प्रतिवादी किसी वाद का सफलतापूर्वक प्रतिरोध (निम्नलिखित) आधार पर करे :
(क) कि वाद में उसके विरुद्ध प्रवर्तित कराने के लिये ईप्सित लिखत शून्यकरणीय है, न्यायालय, यदि प्रतिवादी ने अन्य पक्षकार से लिखत के अधीन कोई फायदा प्राप्त किया हो तो उससे यह अपेक्षा कर सकेगा कि ऐसा फायदा उस पक्षकार को, जहाँ तक हो सके, प्रत्यावर्तित करे या उसके लिये प्रतिकर दे;
(ख) कि भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) की धारा 11 के अधीन संविदा करने के लिये यह सक्षम नहीं होने के कारण, वाद में उसके विरुद्ध प्रवर्तित कराने के लिये ईप्सित करार शून्य है, तो न्यायालय, यदि प्रतिवादी ने अन्य पक्षकार से करार के अधीन कोई फायदा प्राप्त किया हो तो उससे अपेक्षा कर सकेगा कि ऐसा फायदा उस पक्षकार को, उस विस्तार तक जितना उसके द्वारा उसे या उसकी संपदा को फायदा हुआ, जहाँ तक हो सके, प्रत्यावर्तित करे।
अध्याय 6: घोषणात्मक डिक्रियाँ
34. प्रास्थिति या अधिकार की घोषणा के बारे में न्यायालय का विवेकाधिकार– किसी विधिक हैसियत या किसी सम्पत्ति के बारे में कोई अधिकार का हकदार कोई व्यक्ति, किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई वाद संस्थित कर सकेगा जो ऐसी हैसियत या अधिकार पर उसके हक का प्रत्याख्यान कर रहा हो या प्रत्याख्यान करने में हितबद्ध हो, और न्यायालय स्वविवेकानुसार उसमें घोषणा कर सकेगा कि वह इस प्रकार हकदार है, और ऐसे वाद में वादी के लिये आवश्यक नहीं है कि कोई अतिरिक्त अनुतोष के लिये माँग करे :
परन्तु; यह कि कोई न्यायालय ऐसी कोई घोषणा नहीं करेगी जहाँ वादी मात्र हक की घोषणा के अतिरिक्त अनुतोष माँगने के लिये समर्थ होते हुए भी ऐसा करने का लोप करें।
स्पष्टीकरण सम्पत्ति का कोई न्यासी वह व्यक्ति है जो किसी (व्यक्ति) के जो अस्तित्व में न हो, हक से प्रतिकूल कोई हक का प्रत्याख्यान करने को हितबद्ध हैं और जिसके लिये वह न्यासी होता यदि वह (व्यक्ति) अस्तित्व में होता।
35. घोषणा का प्रभाव– इस अध्याय के अधीन की गई घोषणा केवल वाद के पक्षकारों, उनके माध्यम से दावा करने वाले व्यक्तियों क्रमशः पर और जहाँ पक्षकारों में से कोई न्यासी हों, उन व्यक्तियों पर जिनके लिये यदि घोषणा की दिनांक को अस्तित्व में होते तो ऐसे पक्षकार न्यासी होते, आबद्धकर है।
(भाग 3 निवारक अनुतोष)
अध्याय 7: व्यादेश साधारणत:
36. निवारक अनुतोष कैसे अनुदत्त किया जाता है– निवारक अनुतोष न्यायालय के विवेकानुसार, अस्थायी या शाश्वत व्यादेश द्वारा अनुदत्त किया जाता है।
37. अस्थायी तथा शाश्वत व्यादेश– (1) अस्थायी व्यादेश वे हैं जो किसी विनिर्दिष्ट समय तक या न्यायालय के अतिरिक्त आदेश तक बने रहते हैं, और वे वाद के किसी भी प्रक्रम पर अनुदत्त किये जा सकेंगे और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) द्वारा विनियमित होते हैं।
(2) शाश्वत व्यादेश वाद की सुनवाई पर और उसके गुणागुण के आधार पर की गई डिक्री द्वारा ही अनुदत्त किया जा सकता है; तदद्वारा प्रतिवादी किसी अधिकार का ऐसा प्राख्यान या कोई ऐसा कार्य जो वादी के अधिकारों के प्रतिकूल हो, न करने के लिए शाश्वत काल के लिए व्यादिष्ट कर दिया जाता है।
अध्याय 8 : शाश्वत व्यादेश
38. शाश्वत व्यादेश कब अनुदत्त किया जाता है– (1) इस अध्याय द्वारा अन्तर्विष्ट या निर्दिष्ट अन्य उपबंधों के अध्यधीन, वादी को कोई शाश्वत व्यादेश, उसके पक्ष में विद्यमान किसी बाध्यता के, चाहे अभिव्यक्त रूप से या विवक्षित तौर पर, भंग को निवारित करने के लिये अनुदत्त किया जा सकेगा।
(2) जब ऐसी कोई बाध्यता संविदा से उत्पन्न होती हो तो न्यायालय अध्याय 2 में अन्तर्विष्ट नियमों और उपबंधों द्वारा मार्गदर्शित होगा।
(3) जब प्रतिवादी, वादी के सम्पत्ति के अधिकार या के उपभोग पर आक्रमण करे या आक्रमण करने की धमकी दे, तो न्यायालय, निम्नलिखित दशाओं में कोई शाश्वत व्यादेश अनुदत्त कर सकेगी, अर्थात् :
(क) जहाँ प्रतिवादी वादी के लिये सम्पत्ति का न्यासी हो;
(ख) जहाँ आक्रमण द्वारा कारित वास्तविक नुकसान या जो कारित होना संभाव्य है, को अभिनिश्चित करने
के लिये कोई मानक विद्यमान न हो;
(ग) जहाँ आक्रमण ऐसा हो कि धन के रूप में प्रतिकर यथायोग्य अनुतोष प्रदान नहीं करेगा;
(घ) जहाँ न्यायिक कार्यवाहियों का बाहुल्य निवारित करने के लिये व्यादेश आवश्यक हो ।
39. आज्ञापक व्यादेश– जब किसी बाध्यता के भंग को निवारित करने के लिये, कतिपय कार्यों के पालन को विवश करना आवश्यक हो जिनको प्रवर्तित करने के लिये न्यायालय समर्थ हो, न्यायालय, स्वविवेकानुसार, परिवादित भंग को निवारित करने और अपेक्षित कार्यों के पालन को विवश करने के लिये भी कोई व्यादेश अनुदत कर सकेगा ।
40. व्यादेश के स्थान पर या उसके अतिरिक्त नुकसानी– (1) धारा 38 के अधीन शाश्वत व्यादेश या धारा 39 के अधीन आज्ञापक व्यादेश के लिये किसी वाद में वादी, या तो ऐसे व्यादेश के अतिरिक्त या के स्थान पर नुकसानी का दावा कर सकेगा और न्यायालय, यदि ठीक समझे, ऐसी नुकसानी अधिनिर्णीत कर सकेगा।
(2) इस धारा के अधीन नुकसानी के लिये कोई अनुतोष अनुदत्त नहीं किया जाएगा जब तक कि वादी ने उसके वादपत्र में ऐसे अनुतोष का दावा न किया हो:
परन्तु; यह कि जहाँ वादपत्र में ऐसी किसी नुकसानी का दावा न किया गया हो, न्यायालय, कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम पर, वादी को ऐसे दावे को सम्मिलित करने के लिये ऐसे निबंधनों पर जैसे कि न्यायसंगत हों, वादपत्र में संशोधन करना मंजूर करेगा।
(3) वादी के पक्ष में विद्यमान किसी बाध्यता के भंग को निवारित करने के किसी वाद की खारिजी ऐसे भंग के लिये नुकसानी के लिये वाद लाने के उसके अधिकार का वर्जन करेगी।
41. व्यादेश कब नामंजूर किया जाता है– कोई व्यादेश अनुदत्त नहीं किया जा सकता–
(क) वाद, जिसमें व्यादेश ईप्सित हो, संस्थित किये जाने के समय लंबित किसी न्यायिक कार्यवाही के अभियोजन से किसी व्यक्ति को अवरुद्ध करने के लिये, जब तक कि ऐसा अवरोध कार्यवाहियों के बाहुल्य को निवारित करने के लिये आवश्यक न हो;
(ख) किसी न्यायालय, जो उससे अधीनस्थ नहीं है जिससे अनुतोष ईप्सित है, में किसी कार्यवाही को संस्थित या अभियोजित करने से किसी व्यक्ति को अवरुद्ध करने के लिये;
(ग) किसी विधायी निकाय को आवेदन करने से किसी व्यक्ति को अवरुद्ध करने के लिये;
(घ) किसी दाण्डिक मामले में किसी कार्यवाही को संस्थित या अभियोजित करने से किसी व्यक्ति को अवरुद्ध करने के लिये;
(ङ) किसी संविदा के भंग को निवारित करने के लिये जिसका पालन विनिर्दिष्टतः प्रवर्तनीय नहीं है;
(च) किसी कार्य को, जिसके बारे में युक्तियुक्त तौर पर यह स्पष्ट न हो कि यह उपताप (न्यूसेन्स) हो जाएगा, उपताप (न्यूसेन्स) के आधार पर निवारित करने के लिये;
(छ) किसी चालू रहने वाले भंग, जिसमें वादी उपमत हो गया हो, को निवारित करने के लिये;
(ज) जब समानतः प्रभावकारी अनुतोष कार्यवाही के किसी अन्य प्रायिक ढंग द्वारा निश्चित तौर पर अभिप्राप्त किया जा सकता हो सिवाय न्यास भंग की दशा में;
(जक) यदि उससे किसी अवसंरचना परियोजना की प्रगति या पूरा होने में अड़चन आती है या विलंब होता है अथवा उससे संबंधित सुसंगत संविदा के सतत व्यवस्था में या ऐसी परियोजना की विषय-वस्तु होने के कारण सेवाओं में हस्तक्षेप होता है;
(झ) जब वादी या उसके अभिकर्ताओं का आचरण ऐसा हो कि न्यायालय की सहायता से उसे निर्हकित कर दे;
(ञ) जब वादी का मामले में कोई वैयक्तिक हित न हो ।
42. नकारात्मक करार के पालन का व्यादेश– धारा 41 के खण्ड (ङ) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, जहाँ किसी संविदा में कतिपय कार्य को करने के सकारात्मक करार के साथ कतिपय कार्य को न करने का, अभिव्यक्त या विवक्षित, कोई नकारात्मक करार समाविष्ट हो, परिस्थितियाँ कि न्यायालय सकारात्मक करार के विनिर्दिष्ट पालन को विवश करने में असमर्थ है, उसे नकारात्मक करार के पालन करने के किसी व्यादेश को अनुदत्त करने से प्रवारित नहीं करेगी :
परन्तु; यह कि वादी संविदा का पालन, जहाँ तक उस पर वह आबद्धकर है, करने में विफल न रहा हो ।
43. 1940 के अधिनियम 10 का संशोधन– [निरसन और संशोधन अधिनियम, 1974 (1974 का 56), धारा 2,
अनुसूची 1 द्वारा निरसित ।]
44. निरसन [ निरसन और संशोधन अधिनियम, 1974– (1974 का 56), धारा 2, अनुसूची 1 द्वारा निरसित 1]