शनिवार, मार्च 1, 2025
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shah bano case in hindi | शाह बानो बेगम केस |mohd ahmed khan vs shah bano

आज के महत्वपूर्ण निर्णय की सीरिज में ऐतिहासिक के निर्णय मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985) के मामले को जानेंगे।

मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (23 अप्रैल 1985)

पीठ: मुख्य न्यायाधीश वाई.वी.चंद्रचूड़ न्यायमूर्ति डी ए देसाई, ओ. चिनप्पा रेड्डी, ई एस वेंकटरमैया और रंगनाथ मिश्रा

निर्णय दिनांक: 23 अप्रैल 1985

निर्णय(JUDGMENTS):

पांच न्यायधीशों की पीठ में मुख्य न्यायमूर्ति वाई.वी.चंद्रचूड़ ने निर्णय सुनाया।

मामले के तथ्य(FACT OF THE CASE):

मोहम्मद अहमद खान और साहब बानो बेगम दोनों पति-पत्नी थे जिनका विवाह 1932 में हुआ दोनों की विवाह से तीन पुत्र और दो पुत्रियां उत्पन्न हुई। विवाह के 43 वर्ष पश्चात 1975 में अपीलार्थी (मोहम्मद अहमद खान) ने प्रत्यर्थी (शाह बानो बेगम) को घर से निकाल दिया। प्रत्यर्थी ने अप्रैल 1978 में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंर्तगत न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी इंदौर के समक्ष 500₹ प्रतिमास की दर से भरण पोषण पाने के लिए आवेदन प्रस्तुत किया। अपीलार्थी ने 6 नवंबर 1978 को प्रत्यर्थी को अपरिवर्तनीय तलाक दे दिया। अपने बचाव में कहा वह भरण पोषण के लिए उतरदायी नहीं है, क्योंकि उसने प्रत्यर्थी को तलाक़ दे दिया है तथा उसने 200 रुपए प्रतिमाह की दर से 2 वर्ष तक भरण पोषण दिया था और 3000 रुपए डावर या मैहर की रकम के रूप में दी थी।

मजिस्ट्रेट ने 25 रुपए प्रतिमाह की दर से भरण पोषण देने का निदेश दिया। अपीलार्थी ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर की, तब उच्च न्यायालय ने पूर्व निर्धारित रकम को बढ़ा कर 179.20 रुपए प्रतिमाह कर दिया । अपीलार्थी ने यह अपील उच्चतम न्यायालय के सामने विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से पेश की ।

 प्रमुख प्रश्न / दलील:

पति की और उन मध्यक्षेपियों की, जो उसका समर्थन करते हैं, दलील यह है कि मुस्लिम स्वीय विधि के अधीन ऐसी पत्नी का भरण-पोषण करने का पति का दायित्व, जिसका “विवाह विच्छेद” हो गया है, इद्दत की अवधि तक ही सीमित है । इसके लिए अपने पक्ष समर्थन में उन्होंने कुछ पाठ्य-पुस्तकों में अंतविष्ट विधि के कथनों का अवलंब लिया ।

दूसरा मुद्दा यह है कि क्या धारा 125 के अधीन किया गया आवेदन धारा 127 (3) (ख) में अंतर्विष्ट उपबंधों के कारण खारिज करने योग्य है। यह धारा यथासंभव यह उपबंध करती है कि मजिस्ट्रेट भरण-पोषण के आदेश को रद्द कर देगा, यदि पति, पत्नी का विवाह विच्छेद कर देता है और पत्नी ने वह पूरी धनराशि प्राप्त कर ली है। जो पक्षकारों को लागू किसी रूढ़िजन्य या स्वीय विधि के अधीन ऐसे “विवाह विच्छेद पर” देय थी।

इससे यह प्रश्न उठता है कि क्या मुस्लिम स्वीय विधि के अधीन “विवाह विच्छेद पर” पत्नी को कोई रकम संदेय है?

क्या मुस्लिम स्वीय विधि अपनी ऐसी पत्नी के भरण-पोषण की व्यवस्था करने का उसके पति पर कोई उत्तरदायित्व नहीं डालती, जिसका विवाह विच्छेद कर दिया गया है?

क्या इद्दत की अवधि के लिए थोड़ी-सी रकम का संदाय करना मात्र ही मुस्लिम पति के विवाह विच्छेद (तलाक) के विशेषाधिकार की कीमत है?

क्या इद्दत की अवधि के दौरान रकम का संदाय कर दिये जाने से ही, भले ही वह रकम पत्नी के भावी भरण-पोषण के लिए. बिल्कुल ही अपर्याप्त हो, मुस्लिम पति सदैव के लिए पत्नी के भरण-पोषण की व्यवस्था करने के उत्तरदायित्व से उन्मुक्त हो जाता है?

क्या मुस्लिम स्वीय विधि में ऐसे उपबंध हैं, जिनके अधीन पत्नी को “विवाह विच्छेद पर” कोई रकम संदेय है और

क्या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 मुस्लिम स्वीय विधि में हस्तक्षेप करती है और क्या इन दोनों के बीच कोई द्वंद्व है?

ये और ऐसे ही कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न इस अपील में उठते हैं । अपील खारिज की गई।

अभिनिर्धारित (HEADNOTE):-

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 (1) (क) के अधीन ऐसे व्यक्ति को जो पर्याप्त साधनों वाला है और जो अपनी ऐसी पत्नी का भरण-पोषण करने में उपेक्षा करता है या इन्कार करता है जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, न्यायालय 500 रुपए से अनधिक दर से पत्नी को मासिक भत्ता संदाय करने के लिए (उस व्यक्ति को) कह सकता है | धारा 125 (1) के स्पष्टीकरण के खंड (ख) के द्वारा “पत्नी” के अंतर्गत ऐसी स्त्री भी है जिसके पति ने उससे विवाह विच्छेद कर लिया हो और जिसने पुनर्विवाह नहीं किया है। ये उपबंध इतने स्पष्ट और सूक्ष्म हैं कि इनमें किसी संदेह अथवा सफाई की गुंजाइश नहीं। पति-पत्नी में किसी एक अथवा दोनों के द्वारा पालन किए जाने वाले (माने जाने वाले ) धर्म का इन उपबंधों की स्कीम में कोई स्थान नहीं है। चाहे पति-पत्नी हिन्दू हों या मुसलमान, क्रिश्चियन हों या पारसी, नास्तिक हों या आस्तिक- ये सब बातें इन उपबंधों के लागू करने में विसंगत हैं। इसका कारण स्वयं-सिद्ध है और यह इस दृष्टि से कि धारा 125 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का भाग है, सिविल विधि का भाग नहीं, जो हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण अधिनियम, दि शरीयत अथवा कारसी मैट्रीमोनियल ऐक्ट जैसी सिविल विधियों की तरह  दि शरीयत अथवा कारसी मैट्रीमोनियल ऐक्ट जैसी सिविल विधियों की तरह जो किसी धर्म विशेष को मानने वाले पक्षकारों के अधिकारों और बाध्यताओं को परिभाषित करती हैं और उनको लागू होती हैं।

धारा 125 ऐसे वर्ग के व्यक्तियों के लिए शीघ्र और संक्षिप्त उपचार का उपबंध करने के लिए अधि- नियमित की गई है जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं। तो फिर इस बात से क्या अंतर पड़ेगा कि उपेक्षित पत्नी, संतान या माता-पिता किस धर्म को मानते हैं ? पर्याप्त साधनों वाले व्यक्तियों द्वारा इन व्यक्तियों के भरण-पोषण में की गई उपेक्षा और इन व्यक्तियों की अपने आपका भरण-पोषण करने की असमर्थता, वस्तुनिष्ठ कसौटियां हैं जो धारा 125 के लागू होने को अवधारित करती हैं ये उपबंध जिनकी प्रकृति आवश्यक रूप से निरोधात्मक है, धर्म की सीमाओं को लांघते हैं। यह सही है कि ये उपबंध पक्षकारों की स्वीय विधि को अतिष्ठित नहीं करते, किंतु साथ ही पक्षकारों द्वारा माने जाने वाने धर्म अथवा स्वीय विधि की स्थिति जो उन्हें लागू होती है, तब तक ऐसी विधियों के लागू होने पर कोई कुप्रभाव नहीं डाल सकती जब तक कि, संविधान के ढांचे के अंतर्गत ऐसे उपबंधों का लागू होना धार्मिक समुदायों या वर्गों के परिभाषित प्रवर्ग तक सीमित न कर दिया जाए। ऐसे निकट संबंधियों का, जो कि निर्धन हैं, भरण-पोषण करने के लिए धारा 125 द्वारा अधिरोपित दायित्व आवारागर्दी और दीन-हीनता को रोकने में समाज के प्रति नागरिक की व्यक्तिगत बाध्यता पर आधारित है। यह बात विधि का नैतिक आदेश है और नैतिकता को किसी धर्म के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। धारा 125 (1) के स्पष्टीकरण के खंड (ख) में, जो “पत्नी” की यह परिभाषा करता है कि इसके अंतर्गत ऐसी पत्नी भी आती है, पति ने जिसका विवाह विच्छेद कर दिया है, इस बात को न्यायोचित ठहराने के लिए परिसीमनकारी ऐसे कोई शब्द नहीं हैं कि मुस्लिम स्त्रियां इसकी व्याप्ति से अपवर्जित हैं। धारा 125 की सही प्रकृति सही भर्यों में धर्म-निरपेक्ष है (पैरा 7)

“पत्नी” की परिभाषा में ऐसी स्त्री को शामिल करके, जिसका विवाह- विच्छेद हो गया है, उपर्युक्त निष्कर्षो को और भी अधिक बल मिलता है। “पत्नी” से, उसके द्वारा या उसके पति के द्वारा माने जाने वाले धर्म के

बावजूद भी, उपर्युक्त उपबंध में परिभाषित पत्नी अभिप्रेत है। अतः ऐसी मुस्लिम पत्नी जिसका विवाह विच्छेद हो गया है, जब तक उसने पुनर्विवाह नहीं किया है, धारा 125 के प्रयोजन के लिए “पत्नी” है। इस धारा के अधीन उसे उपलब्ध कानूनी अधिकार उसको लागू स्वीय विधि के उपबंधों के द्वारा अप्रभावित रहता है। (पैरा 9)

इस निष्कर्ष को कि धारा 125 के द्वारा प्रदत्त अधिकार का प्रयोग पक्षकारों की स्वीय विधि के बावजूद भी किया जा सकता है, विशेषकर मुस्लिम पक्षकारों के बारे में, संहिता की धारा 125 (3) के द्वितीय परन्तुक के स्पष्टीकरण में अन्तविष्ट उपबंध से भी बल मिलता है यह उपबंध यह कहता है कि यदि पति इस शर्त पर भरण-पोषण करने की प्रस्थापना करता है कि उसकी पत्नी उसके साथ रहे और वह पति के साथ रहने से इन्कार करती है तो मजिस्ट्रेट उसके द्वारा किए गए इन्कार के किन्हीं आधारों पर विचार कर सकता है और ऐसी प्रस्थापना के किए जाने पर भी वह इस धारा के अधीन आदेश दे सकता है, यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि ऐसा आदेश देने के लिए न्यायसंगत आधार हैं (पैरा 10 )

मुस्लिम विधि की पाठ्य पुस्तकों के कथन इस प्रतिपादना को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि मुस्लिम पति अपनी ऐसी पत्नी का भरण- पोषण करने के लिए, जिसका विवाह विच्छेद कर दिया है और जो अपना भरण-पोषण करने के लिए समर्थ नहीं है, भरण-पोषण करने की बाध्यता के अधीन नहीं है। ऐसी अकिंचन पत्नी के लिए जिसका उसने विवाह-विच्छेद कर दिया है, भरण-पोषण की व्यवस्था के बारे में पति के दायित्व की सीमा, मात्रा और अवधि तीनों दृष्टि से, अवधारित करने के लिए मुस्लिम स्वीय विधि की सम्पूर्ण रूपरेखा को ध्यान में रखने की आवश्यकता होगी। मुस्लिम स्वीय विधि के अधीन पति अपनी पत्नी के प्रति सम्मान के प्रतीक स्वरूप “मेहर” संदाय करने के लिए आबद्ध है। यह सही है कि पति अपनी पत्नी को “मेहर” (डावर) देने के लिए जितनी रकम वह चाहे तय कर सकता है, किन्तु यह रकम “10 दिरहम” से कम नहीं हो सकती जो तीन या चार रुपए के बराबर है : ( मुल्ला कृत “मोहम्मडन ला”, 18वां संस्करण, पैरा 286, पृ० 308) किन्तु इस बात का विनिश्चय करने के लिए जीवन के यथार्थ को ध्यान में रखना चाहिए। मेहर पत्नी के सम्मान का प्रतीत है। मेहर के रूप में देय, तय की गयी राशि के बारे में साधारणतः यह समझा जाता है कि यह राशि विवाह और उसके पश्चात की अवधि के दौरान पत्नी की सामान्य अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए है किंतु मुस्लिम स्वीय विधि के ये उपबंध ऐसे मामलों के बारे में नहीं हैं जिनमें पत्नी विवाह विच्छेद के बाद अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है। पाठ्य-पुस्तकों के कथनों की व्याप्ति को उन मामलों में लागू करना न केवल गलत बल्कि अन्यायपूर्ण है, जिन मामलों में ऐसी पत्नी जिसका विवाह विच्छेद कर दिया गया है, अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है। विधि के इन कथनों का लागू किया जाना ऐसे वर्ग के मामलों तक ही सीमित किया जाना चाहिए, जिन मामलों में उस पत्नी की निर्धनता के कारण, जिसका विवाह विच्छेद हो गया है, आवारागर्दी या दीन- हीनता की कोई संभावना नहीं है। (पैरा 14 )

चूंकि मुस्लिम स्वीय विधि, जो कि इद्दत की अवधि तक ही ऐसी पत्नी के भरण-पोषण की व्यवस्था, जिसका विवाह विच्छेद कर दिया गया है, के लिए पत्नी के दायित्व को सीमित करती है, धारा 125 द्वारा अनुध्यात स्थिति की न तो कल्पना करती है और न इसे स्वीकार करती है, इसलिए यह अभि- निर्धारित करना गलत होगा कि मुल्लिम पति, अपनी स्वीय विधि के अनुसार अपनी ऐसी पत्नी की, जिसका विवाह विच्छेद कर दिया गया है और जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, इद्दत की अवधि के पश्चात् भरण- पोषण करने की व्यवस्था की बाध्यता के अधीन नहीं है। अतः सही स्थिति यह है कि यदि ऐसी पत्नी, जिसका विवाह विच्छेद कर दिया गया है, अपना भरण-पोषण करने में समर्थ है तो उसके भरण-पोषण की व्यवस्था करने का पति का दायित्व इद्दत की अवधि की समाप्ति पर ही समाप्त हो जाता है । किन्तु यदि वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है तो वह धारा 125 काअवलंब लेने की हकदार है। इस विचार-विमर्श का परिणाम यह है कि ऐसी पत्नी के भरण-पोषण की व्यवस्था से संबंधित पति की बाध्यता के प्रश्न पर जिस पत्नी का विवाह विच्छेद कर दिया गया है और जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, मुस्लिम स्वीय विधि और धारा 125 के अधीन उपबंधों में कोई द्वन्द्व नहीं है। (पैरा14 )

 

क्या मेहर पति द्वारा पत्नी को ‘विवाह विच्छेद (किए जाने पर ‘ संदेय है? इस बारे में कुछ भ्रम इस तथ्य के कारण हुआ है कि मुस्लिम स्वीय विधि के अधीन मेहर की रकम को दो भागों में बांट दिया जाता है-एक वह जो “तुरन्त” (प्रॉमट) कही जाती है जो कि मांगने पर संदेय है और दूसरी को “आस्थगित” (डैफर्ड) कहा जाता है जो कि मृत्यु अथवा विवाह विच्छेद के कारण विवाह के विघटन पर संदेय होती है। किन्तु यह तथ्य कि आस्थगित मेहर विवाह के विघटन पर संदेय है, इस निष्कर्ष को न्यायोचित नहीं ठहरा सकता कि यह “विवाह-विच्छेद पर देय है।” यह मान लेते हुए कि किसी

मामले विशेष में मेहर की सम्पूर्ण रकम विवाह विच्छेद के द्वारा विघटित विवाह पर संदेय आस्थगित वस्तु है फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह ऐसी रकम है जो ‘विवाह विच्छेद पर संदेय है। विवाह विच्छेद (तलाक) समय का ऐसा सुविधाजनक और निश्चित प्रक्रम हो सकता है जबकि आस्थगित रकम का संदाय पति द्वारा पत्नी को किया जाना होता है, किन्तु रकम का संदाय विवाह विच्छेद के कारण नहीं हुआ है, और यही कुछ “विवाह विच्छेद पर देय” अभिव्यक्ति से अभिप्रेत है जो संहिता की धारा 127 (3) (ख) में जाती है। यदि मेहर ऐसी रकम है जिसको पत्नी विवाह के प्रतिफलस्वरूप पति से प्राप्त करने के लिए हकदार है, तो यह बात विवाह विच्छेद के प्रति- फलार्थ संदेय रकम के बिल्कुल विपरीत है। विवाह विच्छेद (तलाक) विवाह का विघटन कर देता है । अतः जो रकम विवाह के प्रतिफलार्थ संदेय है, उसे संभवतः विवाह विच्छेद के प्रतिफलार्थं संदेय रकम नहीं कहा जा सकता । अनुकल्पिक यह दलील कि मेहर पत्नी के सम्मान के प्रतीकस्वरूप पति पर अधिरोपित एक बाध्यता है, इस बात के लिए पूर्णतः अहितकर है कि यह रकम विवाह विच्छेद पर पत्नी को संदेय है । कोई भी व्यक्ति किसी स्त्री से प्रेम, सुन्दरता, विद्वता के कारण अथवा इनमें से किसी (कारण) के बिना भी विवाह कर सकता है और वह अपनी पत्नी के सम्मान के प्रतीकस्वरूप उसके साथ कोई रकम देय तय कर सकता है । किन्तु वह उस स्त्री के सम्मान के प्रतीकस्वरूप उसका विवाह विच्छेद कभी नहीं करता । अतः पत्नी को सम्मान- स्वरूप संदेय रकम “विवाह विच्छेद पर देय” रकम नहीं हो सकती। (पैरा 24 )

सरकार ने “पत्नी” अभिव्यक्ति में ऐसी पत्नी को शामिल करके, जिसका विवाह विच्छेद हो गया है, इसे परिभाषित करते हुए ऐसा परिवर्तन अंतःस्थापित किया था। सरकार ने यह उपबंध करके एक और परिवर्तन भी अंतःस्थापित किया कि यह तथ्य कि पति ने एक अन्य स्त्री से विवाह कर लिया है, उसके साथ रहने से पत्नी के इंकार का एक न्यायोचित आधार है । धारा 127 (3) (ख) में अन्तविष्ट उपबंध इस भ्रम के कारण अंतःस्थापित किया गया है कि मेहर “विवाह विच्छेद पर” संदेय रकम है। किंतु यह बात पत्नी को सम्मान के प्रतीकस्वरूप संदेय रकम को विवाह विच्छेद पर संदेय रकम में नहीं बदल सकती। (पैरा 28)

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