उच्चतम न्यायालय ने दोषमुक्ति की अपील को सुनते हुए कहा कि जहां किसी मामले मे दो दृष्टिकोण विध्यमान हो वहाँ अभियुक्त के पक्ष मे विध्यमान दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिए क्यूँ की अभियुक्त के पक्ष मे निर्दोषिता की उपधारण को बल मिलता है, तथा दोषमुक्ति को तभी उलटा जा सकता है जबकि अवर न्यायालय का निर्णय त्रुटिपूर्ण या अनुचित हो ।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय में
आपराधिक अपीलीय क्षेत्राधिकार
दांडिक अपील सं. 2014 का 1904
रूपवंती
………. अपीलकर्ता (एस)
बनाम
हरियाणा राज्य व अन्य
………. प्रत्यर्थी
पीठ : जस्टिस कृष्ण मुरारी,जस्टिस बी.वी.नागरत्ना
निर्णय (JUDGMENT)
Disclaimer |
---|
यह निर्णय स्वयं की समझ एवं भारत सरकार के विधिक शब्दावली के आधार पर उच्चतम न्यायालय के मूल निर्णय से अनुवादित किया गया। यह किसी भी प्रकार की सलाह नहीं है और न ही किसी भी निश्चय पर पहुंचने में विश्वास किया जाना चाहिए। किसी भी चूक या विसंगति के मामले में, मूल अभिलेखों में प्रदत जानकारी अंतिम और बाध्यकारी होगी। |
जस्टिस कृष्ण मुरारी:
1. वर्तमान अपील पंजाब एण्ड हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 24.01.13 को पारित अंतिम निर्णय एवं आदेश के विरुद्ध निर्देशित है। (इसके बाद उच्च न्यायालय के रूप मे संदर्भित ), दांडिक अपील क्र. 43/MA/2012 जहां प्रत्यर्थी संख्या 2 लगायत 6 को उनके विरुद्ध लगाए गए आरोपों से दोषमुक्त किया गया ।
तथ्य(fact):
2. संक्षेप मे वर्तमान अपील के से सुसंगत तथ्य यह है कि, यहाँ प्रत्यर्थी संख्या 2 लगायत 6 ने, अपने सामान्य आशय के अग्रसरण मे, दिनांक 22.12.2009 को मृतक पर हमला किया । मृतक को अस्पताल ले जाया गया जहां अगले दिन 230.12.2009 को उसकी मृत्यु हो गई ।
3. अभिकथित घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट यहाँ प्रत्यर्थीयों के विरुद्ध भारतीय दंड साहिंता की धारा 148,149,323,324,307,302 और 506 के अंतर्गत करनाल सिटी पुलिस स्टेशन पर एफ आई आर क्र.905 पंजीबद्ध की गई तथा उसके बाद पुलिस ने अन्वेषण शुरू किया ।
4. अन्वेषण पूर्ण होने पर , एक अंतिम रिपोर्ट न्यायालय मे पेश की गई थी, और मामला विचारण के लिए सक्षम न्यायालय को सुपुर्द कर दिया गया था । प्रत्यर्थीयों पर आदेश दिनांक 17.05.2010 द्वारा आरोप लागाए गए , जिस पर दोषी न होने का अभिवचन किया तथा पूर्ण विचारण चाहा । साक्ष्य के मूल्यांकन करने के बाद विचारण न्यायालय ने अभियोजन का मामला संदेहपूर्ण पाया, जिसके परिणामस्वरूप अंततः सभी प्रत्यर्थी अभियुक्तों को दिनांक 18.10.2011 के आदेश द्वारा दोषमुक्त कर दिया गया।
5. विचारण न्यायालय के उपर्युक्त आदेश से व्यथित होकर अपीलार्थी ने दांडिक अपील दायर की। उच्च न्यायालय ने दिनांक 24.01.2013 के आक्षेपित आदेश द्वारा अपील को इस आधार पर खारिज कर दिया कि विचारण न्यायालय द्वारा दिया गया दोषमुक्ति का निर्णय साक्ष्य और तथ्यों की उचित मूल्यांकन पर आधारित था तथा इसमें कोई त्रुटि नहीं थी। व्यथित होकर, अपीलार्थी ने वर्तमान अपील को अधिमानित किया है।
विश्लेषण (ANALYSIS):
6. यहां प्रतिवादियों को दोषमुक्त करने के अपने तर्क में, विचरण न्यायालय ने अपने निष्कर्षों में कहा कि कोई भी चक्षुदर्शी साक्षी अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन करने में सक्षम नहीं था। न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्ता, जो मृतक की मां है, ने PW1 की तुलना में घटनाओं का पूरी तरह से अलग विवरण दिया। विचारण न्यायाधीश ने यह भी कहा कि घटना स्थल पर अपीलकर्ता की उपस्थिति भी साबित नहीं हुई थी, और क्योंकि वह मृतक की मां थी, इसलिए, वह एक हितबद्ध साक्षी थी और उसका साक्ष्य विश्वसनीय नहीं था। यह भी देखा गया कि फोरेंसिक साइंस प्रयोगशाला की रिपोर्ट के अनुसार, एक लाठी पर खून के निशान के अतरिक्त बरामद हथियारों पर कोई भी खून मौजूद नहीं था, तथा जिसे कि मृतक के खून से जोड़ा नहीं जा सकता।
7.ऐसे मामलों में जहां दोषमुक्ति को उलटने की मांग की जाती है, न्यायालयों को यह ध्यान रखना चाहिए कि अभियुक्त के पक्ष में निर्दोषता की उपधारणा, इस आधार पर कि वह एक पूर्ण विचारण की कठोरता से बचा है, को मजबूत तथा दृढ़ किया जाता है। अभियोजन तब, जबकि अभी भी सबूत के एक ही भार के अधीन काम कर रहा है, निर्दोषता के दृढ़ ,उपधारणा को उन्मोचित करने और उलटने के लिए, एक अधिक कठिन जिम्मेदारी का निर्वहन करने की आवश्यकता है। निर्दोषता की उपधारणा के इस दृढ़ीकरण को इस न्यायालय द्वारा निर्णयों की श्रेणी में रखा गया है।
- अल्लारखा के. मंसूरी बनाम गुजरात राज्य 2002(1) RCR(Criminal) 748 के मामले में, इस न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि दोषमुक्ति को उलटने के मामलों में, जहां दो दृष्टिकोण संभव हैं, जो दृष्टिकोण अभियुक्त के पक्ष में हो अपनाना होगा। सुविधा के लिए नीचे, निर्णय का प्रासंगिक पैराग्राफ पेश किया जा रहा है :
“दोषमुक्ति के आदेश के विरुद्ध एक अपील में उच्च न्यायालय द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्तियों के संबंध में स्थापित विधि की स्थिति यह है कि, यद्यपि उच्च न्यायालय के पास उन साक्ष्यों की पुनर्विलोकन (समीक्षा) करने की पूर्ण शक्तियां हैं ,जिन पर दोषमुक्ति का आदेश आधारित है, यह दोषमुक्ति के आदेश के साथ हस्तक्षेप नहीं करेगा क्योंकि दोषमुक्ति के आदेश के पारित होने से अभियुक्त के पक्ष में निर्दोषता की उपधारणा को बल (समर्थन) मिलता है।उच्च न्यायालय को विचारण न्यायालय द्वारा प्राप्त तथ्य के निष्कर्ष को विक्षुब्ध करने में धीमा होना चाहिए। आपराधिक (फौजदारी) मामले में न्याय के प्रशासन के जाल में जो गोल्डन सूत्र चलता है, वह यह है कि यदि मामले में पेश किए गए साक्ष्य पर दो दृष्टिकोण (राय) संभव हैं, एक अभियुक्त के दोषी होने की ओर इशारा करता है तथा दूसरा उसकी बेगुनाही की ओर इशारा करता है, तो उस दृष्टिकोण(राय) को जो अभियुक्त के पक्ष मे है,अपनाया जाना चाहिए।
9. आगे, सुमन चंद्र बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो (2021 की आपराधिक अपील संख्या 1645) के मामले में, जिसमें अभियुक्तों की दोषमुक्ति को चुनौती दी गई थी, तब इस न्यायालय ने कहा कि किसी दोषमुक्ति को उलटने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग करते समय, अवर न्यायालय का आदेश न केवल त्रुटिपूर्ण होना चाहिए, बल्कि अयुक्तियुक्त तथा अनुचित भी होना चाहिए। सुविधा के लिए नीचे, निर्णय का प्रासंगिक पैराग्राफ पेश किया जा रहा है :
“यह सुस्थापित विधि है कि दोषमुक्ति को उलटने की अनुमति केवल तभी है, जब ट्रायल कोर्ट का दृष्टिकोण न त्रुटिपूर्ण होना चाहिए, बल्कि अयुक्तियुक्त तथा अनुचित भी हो। हमारी सुविचारित राय में, ट्रायल कोर्ट द्वारा लिया गया दृष्टिकोण एक संभावित दृष्टिकोण था, जो न तो अयुक्तियुक्त था और न ही अनुचित था, और वर्तमान मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में, उच्च न्यायालय द्वारा उलटा या हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए था।”
10. इसी प्रकार मृणाल दास व अन्य बनाम त्रिपुरा राज्य(2011(9) SCC 479) के मामले में, इस न्यायालय ने अवधारित किया कि दोषमुक्ति के निर्णय में हस्तक्षेप केवल तभी किया जा सकता है जब निर्णय “स्पष्ट रूप से अनुचित” हो और दोषमुक्ति को वापस लेने के लिए “बाध्यकारी और पर्याप्त कारण” हों। सुविधा के लिए नीचे, निर्णय का प्रासंगिक पैराग्राफ पेश किया जा रहा है :
दोषमुक्ति आदेश में तभी हस्तक्षेप किया जाना है जब ऐसा करने के लिए “बाध्यकारी और पर्याप्त कारण” हैं। यदि आदेश “स्पष्टत: अनुचित” है, तो यह हस्तक्षेप के लिए एक बाध्यकारी कारण ह। जब विचारण न्यायालय ने साक्ष्य को नज़रअंदाज किया है या तात्विक साक्ष्यों को गलत तरीके से पढ़ा है या तात्विक दस्तावेजों जैसे मृत्यु कालिक कथन/ बैलिस्टिक विशेषज्ञों की रिपोर्ट आदि अनदेखी की है, तो अपीलीय न्यायालय स्थापित/प्रस्तुत सामग्री के आधार पर विचारण न्यायालय के निर्णय को पलटने के लिए सक्षम है।”
निष्कर्ष (CONCLUSION):
11.जैसा कि पूर्वकथित निर्णयों से देखा जा सकता है, उन मामलों में अभियुक्त को बचाव की एक अतिरिक्त परत प्रदान की जाती है, जहां अभियुक्त पहले से ही दोषमुक्त हो चुका है। वर्तमान मामले में, हम उच्च न्यायालय के निर्णय के साथ सहमत हैं। विचारण न्यायालय के निर्णय के अवलोकन से, यह देखा जा सकता है कि विचारण न्यायालय द्वारा अपने निष्कर्ष पर पहुँचने में कोई विपर्यस्तता( perversity) नहीं की गई है। अभिलेख पर उपलब्ध सभी साक्ष्यों का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया गया है और निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए एक विस्तृत विश्लेषण किया गया है।
12. ऐसी परिस्थिति में, हमें विचारण न्यायालय के साथ-साथ उच्च न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाते है। परिणामत:, अपील खारिज की जाती है।
दिनांक : 24 फरवरी 2023
Disclaimer |
---|
यह निर्णय स्वयं की समझ एवं भारत सरकार के विधिक शब्दावली के आधार पर उच्चतम न्यायालय के मूल निर्णय से अनुवादित किया गया। यह किसी भी प्रकार की सलाह नहीं है और न ही किसी भी निश्चय पर पहुंचने में विश्वास किया जाना चाहिए। किसी भी चूक या विसंगति के मामले में, मूल अभिलेखों में प्रदत जानकारी अंतिम और बाध्यकारी होगी। |