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आज के इस लेख में हम डिफॉल्ट बेल यानी जिसे हिंदी में अनिवार्य या चूक जमानत कहते हैं । जानेंगे डिफॉल्ट बेल क्या होती है ? यह कब प्राप्त होती ? और साथ ही जानेंगे इससे संबंधित कुछ महत्वपूर्ण जजमेंट हो
डिफॉल्ट बिल पर बात करने से पहले बेल यानि जमानत क्या होती है ? इसे जान लेते हैं।
जमानत क्या है? [What is bail meaning]
जब अपराध के अभियुक्त व्यक्ति को इस बात की प्रतिभूति लेकर अभिरक्षा या निरोध से स्वतंत्रता प्रदान करना है, कि जब भी न्यायालय में बुलाया जायेगा वह न्यायालय के समक्ष हाज़िर होगा।
दंड प्रक्रिया संहिता में सामान्यता चार प्रकार से अपराधों को वर्गीकृत किया गया है-
(I) संज्ञेय अपराध
(II) असंज्ञेय अपराध
(III) जमानतीय अपराध
(IV) अजमानतीय अपराध
जमानतीय एवं अजमानतीय अपराध को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(a) में परिभाषित किया गया है जो की इस प्रकार है – जमानतीय अपराध वे होते हैं जिन्हें संहिता की पहली अनुसूची में जमानत के रूप में दिखाया गया है या किसी तत्सम में प्रवृत्त विधि में जमानतीय बनाया गया है और आजमानतीय अपराध वे होते हैं, जो जमानततीय अपराध से भिन्न है।
अर्थात जमानतीय अपराध ऐसे अपराधों को कहते है जिन्हें या तो दंड प्रक्रिया संहिता के आधीन पहली अनुसूची में जमानतीय अपराध के रुप में दिखाया गया है या यदि वर्तमान में लागू कोई अन्य विधि, किसी कार्य को अपराध घोषित करती है और उस विधि में ही उस अपराध को जमनतीय बना दिया गया है । जमनातीय अपराधों में जमानत की मांग अधिकार पूर्वक की जाती है।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 में डिफॉल्ट बेल यानी अनिवार्य जमानत को संहिता में न तो परिभाषित किया गया है और ना ही इस शब्द का किसी भी धारा में प्रयोग किया गया है, लेकिन जिस तरीके से हम धारा 154 दंड प्रक्रिया संहिता संहिता में F.I.R. को निहित मानते हैं, ठीक उसी प्रकार से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 की उपधारा (2)में डिफॉल्ट बेल निहित मानते हैं। जो कि इस प्रकार है –
डिफॉल्ट बेल या चूक जमानत क्या है? Default bail meaning in hindi
धारा 167(2) के अनुसार –
( 2 ) वह मजिस्ट्रेट, जिसके पास अभियुक्त व्यक्ति इस धारा के अधीन भेजा जाता है, चाहे उस नामले के विचारण की उसे अधिकारिता हो या न हो, अभियुक्त का ऐसी अभिरक्षा में, जैसी वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे इतनी अवधि के लिए जो कुल मिलाकर पंद्रह दिन से अधिक न होगी, निरुद्ध किया जाना समय – समय पर प्राधिकृत कर सकता है तथा यदि उसे मामले के विचारण की या विचारण के लिए सुपुर्द करने की अधिकारिता नहीं है और अधिक निरुद्ध रखना उसके विचार में अनावश्यक है तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास, जिसे ऐसी अधिकारिता है, भिजवाने के लिए आदेश दे सकता है:
परंतु
( क ) मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का पुलिस अभिरक्षा ने अन्यथा निरोध पंद्रह दिन की अवधि से आगे के लिए उस दशा में प्राधिकृत कर सकता है जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिए पर्याप्त आधार है, किंतु कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का इस पैरा के अधीन अभिरक्षा में निरोध
( i ) कुल मिलाकर नज्चे दिन से अधिक की अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं करेगा जहां अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दस वर्ष से अन्यून की अवधि के लिए कारावानस से दंडनीय है ।
( ii ) कुल मिलाकर साठ दिन से अधिक की अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं करेगा जहां अन्वेषण किसी अन्य अपराध के संबंध में है;
और यथास्थिति नब्बे दिन या साठ दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानत देने के लिए तैयार है और दे देता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा और यह समझा जाएगा कि इस उपधारा के अधीन जमानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति अध्याय 33 के प्रयोजनों के लिए उस अध्याय के उपबंधों के अधीन छोड़ा गया है।
(ख) कोई मजिस्ट्रेट इस धारा के अधीन किसी अभियुक्त का पुलिस अभिरक्षा में निरोध तब तक प्राधिकृत नहीं करेगा जब तक कि अभियुक्त उसके समक्ष पहली बार और तत्पश्चात् हर बार जब तक अभियुक्त पुलिस की अभिरक्षा में रहता है, व्यक्तिगत रूप से [सशरीर] पेश नहीं किया जाता है किंतु मजिस्ट्रेट अभियुक्त के या तो व्यक्तिगत रूप से या इलेक्ट्रानिक दृश्य संपर्क के माध्यम से पेश किए जाने पर न्यायिक अभिरक्षा में निरोध को और बढ़ा सकेगा ।
( ग ) कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, जो उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त विशेषतया सशक्त नहीं किया गया है . पुलिस की अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत न करेगा ।
स्पष्टीकरण 1– शकाएं दूर करने के लिए इसके द्वारा यह घोषित किया जाता है कि पैरा ( क ) में विनिर्दिष्ट अवधि समाप्त हो जाने पर भी अभियुक्त व्यक्ति तब तक अभिरक्षा में निरुद्ध रखा जाएगा जब तक कि वह जमानत नहीं दे देता है ।
स्पष्टीकरण 2- यदि यह प्रश्न उठता है कि क्या कोई अभियुक्त व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया था, जैसाकि पैरा ( ख ) के अधीन अपेक्षित है, तो अभियुक्त व्यक्ति की पेशी को यथास्थिति, निरोध प्राधिकृत करने वाले आदेश पर उसके हस्ताक्षर से या मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त व्यक्ति की इलेक्ट्रानिक दृश्य संपर्क के माध्यम से पेशी के बारे में प्रमाणित आदेश द्वारा साबित किया जा सकता है।
[ परंतु यह और कि अठारह वर्ष से कम आयु की स्त्री की दशा में, किसी प्रतिप्रेषण गृह या मान्यताप्राप्त सामाजिक संस्था की अभिरक्षा में निरोध किए जाने को प्राधिकृत किया जाएगा । ]
जब किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति को गिरफ्तार कर उसे अभिरक्षा में निरुद्ध किया जाता है, तब अन्वेषण एजेंसी को ऐसा प्रतीत होता है कि अन्वेषण धारा 57 में विहित 24 घंटों के भीतर पूरा नहीं किया जा सकता है और अभियुक्त को अन्वेषण के प्रायोजन से अभिरक्षा में निरोध में रखना आवश्यक है, तब अन्वेषण एजेंसी अभियुक्त को जो भी निकटतम मजिस्ट्रेट होगा उसके सामने लेकर जाएगी। उक्त धारा 167( 2 ) के प्रावधानों के अनुसार जब अभियुक्त को इस प्रकार मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाता है तब वह मजिस्ट्रेट अभियुक्त को अधिकतम 15 दिन के लिए पुलिस अभिरक्षा में सौंप देगा और इसे ही हम पुलिस रिमांड या पुलिस कस्टडी कहते हैं।
अभियुक्त को 15 दिन से ज्यादा के लिए अभिरक्षा में रखना होता है तब अभियुक्तों को मामले में अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाएगा और ऐसा मजिस्ट्रेट अभियुक्त को अधिकतम 90 दिन के लिए पुलिस अभिरक्षा के अतिरिक्त अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत कर सकता है ।यदि किया गया अपराध मृत्युदंड,आजीवन कारावास या न्यूनतम 10 वर्षया उससे अधिक के कारावास के दंड ने दंडनीय है। और अधिक किए जाने वाला अपराध उपरोक्त प्रकार के अपराधों से अलग होता है तो उसके लिए ऐसा मजिस्ट्रेट 60 दिन के लिए पुलिस अभिरक्षा से भिन्न अभिरक्षा में भेज सकता है इसे हम न्यायिक अभिरक्षा या जुडिशल रिमाइंड कहते हैं।
जब 90 या 60 दिन के लिए पुलिस अभिरक्षा से भिन्न अभिरक्षा में सौंपा जाता है और तब अन्वेषण एजेंसी इन 90 या 60 दिनों में भी अपना अन्वेषण का कार्य पूरा नहीं कर पाती है, तब अभियुक्त को जमानत पर छोड़े जाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है और यदि वे जमानत देने के लिए तैयार होता है और जमानत दे देता है तब उसे जमानत पर छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार जमानत के हकदार होने पर जमानत प्राप्त होती है उसे ही डिफॉल्ट बेल कहते हैं जिसे इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है –
अनिवार्य या चूक ज़मानत (Default bail meaning)
जब धारा 167(2) के अधीन विहित अवधि के भीतर अन्वेषण पूरा करने में अन्वेषण एजेंसी की चूक अर्थात डिफॉल्ट के कारण जो जमानत का अधिकार मिलता है उसे ही डिफॉल्ट बेल अर्थात चूक या अनिवार्य जमानत कहते हैं।
धारा 167 की उपधारा (2) का स्पष्टीकरण (1) एक यह कहता है कि अभियुक्त को डिफॉल्ट बेल का अधिकार होने पर भी उसे अभिरक्षा से नहीं छोड़ा जाएगा यदि वह जमानत देने को तैयार नहीं है अर्थात जमानत नहीं देता है।
डिफॉल्ट बिल के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई महत्वपूर्ण जजमेंट में इसे वर्णित किया है जिन्हें कुछ प्रमुख वादों की सहायता से इस प्रकार से समझा जा सकता है –
(1) SANJAY DUTT VS STATE [संजय दत्त बनाम राज्य ](AIR 1994 SC)
यह मामला मुंबई ब्लास्ट का मामला था। इस मामले में अभियुक्तों को टाडा एक्ट की धारा 20 के खंड (4) (bb) के अधीन जमानत पर छोड़े जाने संबंधी प्रश्न पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा- “धारा 167 (2 )के अधीन यथास्थिति 90 या 60 दिन की अवधि के भीतर अन्वेषण एजेंसी अपना अन्वेषण करने में चूक करती है तब अभियुक्त को जमानत पर छोड़े जाने का अहस्तक्षेपणीय अधिकार प्राप्त हो जाता है और अभियुक्त यदि मजिस्ट्रेट को समाधान करते हुए जमानत दे देता है, तब उसे जमानत पर छोड़ दिया जाता है।
(2) M KASHI VERSUS STATE [एम. काशी बनाम राज्य] (AIR 2020)
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य रूप से चार प्रश्नों पर विचार किया जिनमें से एक प्रश्न यह था कि “क्या दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2 )के अधीन अनिवार्य जमानत न देना अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।? “
जिस पर सुनवाई करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह अभिनिर्धारित किया कि ” धारा 167 (2) के अंतर्गत नियत अवधि के भीतर यदि आरोप पत्र प्रस्तुत नहीं किया जाता है तो अभियुक्त को डिफॉल्ट बेल अर्थात अनिवार्य या चूक जमानत का अधिकार प्राप्त हो जाता है और उसे जमानत पर नहीं छोड़ा जाता तो वह 621 का उल्लंघन माना जाएगा।
इस प्रकार डिफॉल्ट बिल का राइट दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) से प्राप्त होता है और इस पर अध्याय 33 के जमानत संबंधी सभी प्रावधान लागू होते हैं।
आज के इस लेख में हमने डिफॉल्ट बेल के अधिकार को जानने का प्रयास किया । आशा करते हैं आपको यह लेख पसंद आया होगा ।
धन्यवाद
डिफॉल्ट अथवा चूक जमानत क्या है? Default bail meaning in hindi