case law on uniform civil code |case law on ucc | समान नागरिक संहिता
न्यायिक दृष्टिकोण (judicial point of view)
न्यायालय समय-समय पर समान सिविल संहिता की आवश्यकता को लेकर कई मामलों में अपनी राय प्रकट कर चुका है :
सबसे पहले न्यायालय ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम AIR (1985) SC 945
के मामले में मुख्य न्यायाधीश वाई. वी. चन्द्रचूड की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने अहमद की अपील निरस्त करते हुए न केवल शाहबानो के मामले में उच्च न्यायालय के निर्णय की पुष्टि किया, अपितु धारा 127 के अन्तर्गत भरणपोषण में वृद्धि के लिए आवेदन करने का भी अधिकार दिया।
तब संविधान पीठ ने एक समान नागरिक संहिता और मुस्लिम व्यक्तिगत विधि में सुधार की आवश्यकता अवश्य बतायी, किन्तु सरकार को एक समान नागरिक संहिता बनाने का निर्देश नहीं दिया।
फिर भी, न्यायालय ने यह अवश्य स्पष्ट कर दिया था कि द.प्र.सं. के प्रावधान सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होंगे, चाहे वे हिन्दू हो या मुसलमान या फिर अन्य धर्मावलम्बी।
संविधानपीठ ने अनुच्छेद 44 कहा कि यह राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने में मददगार होगा, फिर भी इसके लिए आज तक कोई प्रयास नहीं किया गया।
सरला मुद्गल,व अन्य बनाम भारत संघ व अन्य (1995) 3. SCC 635
इस मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 44 के अन्तर्गत एक समान नागरिक संहिता हेतु भारत सरकार से निवेदन किया। दरअसल इस मामले में तीन याचिकाकर्त्ता हिन्दू (सुनीता गीता रानी सुश्मीता) महिलाओं के प्रतियों ने इस्लाम धर्म स्वीकार करके दूसरी शादी कर ली थी। न्यायालय ने ऐसे विवाह को शुन्य और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत दण्डनीय घोषित किया।
जॉन वलामत्तम बनाम भारत संघ (AIR 2003 SC 2902)
इस मामले में उच्चत्तम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों के पीठ ने समान सिविल सहिंता बनाए जाने के लिए दुख प्रकट करते हुए इसके बनाए जाने की जोरदार संस्तुति की।
मुख्य न्यायमूर्ति वी एन खरे ने कहा कि अनुच्छेद 44 इस धारणा पर आधारित है कि एक सभ्य समाज मे धर्म और व्यक्तिगत विधि मे कोई संबंध नहीं है। अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है किन्तु अनुच्छेद 44 धर्म को सामाजिक और व्यक्तिगत विधि से प्रथक करता है।
अश्विनी उपाध्याय बनाम भारत संघ (2015)
इस जनहित वाद में यही बात पुनः दोहराया गया, कि अनुच्छेद 44 के अन्तर्गत ‘एक समान सिविल सहिंता’ के निर्माण के लिए या अनुच्छेद 44 को प्रभावी बनाने के लिए न्यायालय संसद को निर्देश (परमोदश) जारी नहीं कर सकती और इस मामले में न्यायालय का वही दृष्टिकोण है जो महर्षि अवधेश के मामले में रहा है।
न्यायालय ने स्पष्ट टिप्पणी किया था कि यदि एकबार पीड़ित व्यक्ति (महिला) हमारे समक्ष आए तब हम (न्याय प्रदान करते हुए) उस पर बिचार कर सकते थे, किन्तु आप (याची) न्यायालय का समय बर्बाद कर रहे है। न्यायालय ऐसा परमादेश जारी नहीं कर सकती है। आप संसद के पास जाइए।
शायराबानो बनाम भारत संघ 2017 SC 313
इस मामले में संविधान पीठ के बहुमत ने तीन तलाक अर्थात् तलाक-ए-बिद्दत को संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत समानता के आधार पर निरस्त करके यह स्पष्ट कर दिया है। इतना ही नहीं, इस निर्णय के समर्थन में मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 भी पारित किया गया और मुस्लिम विवाह विधि में व्याप्त एक अतिप्राचीन असंगत प्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया गया, जो कुछ सीमा तक सफल भी रहा।
उपरोक्त निर्णयों के माध्यम से न्यायालय अपनी राय रख चुका है।