DILIP HARIRAMANI VERSUS BANK OF BARODA [2022]
दिलीप हरिरामणि बनाम बैंक ऑफ बड़ौदा [2022]
DILIP HARIRAMANI VERSUS BANK OF BARODA [2022]
दिलीप हरिरामणि बनाम बैंक ऑफ बड़ौदा [2022]
दांडिक अपील क्रमांक 767 वर्ष 2022
[विशेष अनुमति याचिका (दांडिक) 2021 की संख्या 641 से उद्भूत ]
निर्णय दिनाँक 09/05/2022
न्यामूर्तिगण: माननीय न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी एवं माननीय न्यायमूर्ति संजीव खन्ना
मामले के तथ्य [ fact of the case]
प्रतिवादी बैंक ऑफ बड़ौदा ने मेसर्स ग्लोबल पैकेजिंग फर्म को नगदी सुविधा ऋण व अवधि ऋण प्रदान किया । जिसकी आंशिक भुगतान के लिए फर्म की ओर से सिमैया हरिरामाणी ने तीन चैक जारी किए, हालांकि चैक भुगतान हेतु प्रस्तुत किए जाने पर खाते में अपर्याप्त राशि होने के कारण अनाधरित हो गए । परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 की धारा 138 के अधीन बैंक ने शाखा प्रबंधक के माध्यम से सिमैया हरिरामाणी को मांग सूचना जारी की । शाखा प्रबंधक ने न्यायिक मजिस्ट्रेट बलौदाबाजार, छत्तीसगढ़ के समक्ष परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 की धारा 138 के अधीन अपीलार्थी एवं सिमैया हरिरामाणी के विरुद्ध परिवाद प्रस्तुत किया। जिसमे फर्म को अभियुक्त नहीं बनाया गया,अपीलार्थी एवं सिमैया हरिरामाणी को फर्म का भागीदार दर्शित किया गया।
न्यायिक मजिस्ट्रेट ने अपीलार्थी एवं सिमैया हरिरामाणी को धारा 138 एन आई एक्ट के अधीन 6 माह तक का कारावास के लिए दोषसिद्ध किया गया एवं दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(3) के अधीन ₹97,50,000/ प्रतिकर का आदेश भी दिया । अपीलार्थी एवं सिमैया हरिरामाणी ने अपनी दोषसिद्ध के विरुद्ध सेशन न्यायालय के समक्ष अपील प्रस्तुत की तब सेशन न्यायालय ने दोषसिद्ध के बरकरार रखते हुए कारावास की सजा को न्यायलय के उठने तक दंड में परिवर्तित कर दिया और प्रतिकर की रकम को बढ़ा कर ₹1,20,00,000/ कर दिया। साथ ही प्रतिकर की रकम देने में व्यतिक्रम होने की दशा में 3 माह का अतरिक्त कारावास भुगतने का दंड दिया। तत्पश्चात अपीलार्थी एवं सिमैया हरिरामाणी ने सेशन न्यायालय के निर्णय को छत्तीसगढ उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जो उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया गया। तब अपीलार्थी एवं सिमैया हरिरामाणी उच्च न्यायालय के आक्षेपित निर्णय के विरुद्ध विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी।
उच्चतम न्यायालय का निर्णय:-
किसी भी सबूत के अभाव में, अभियोजन द्वारा दिए गए साक्ष्य यह दिखाने और स्थापित करने में असफल रहा कि अपीलार्थी फर्म के मामलों के संचालन के लिए प्रभारी और जिम्मेदार था। इस न्यायालय द्वारा गिरधारी लाली गुप्ता बनाम डी.एच. मेहता और अन्य के मामले में इस अभिव्यक्ति की व्याख्या कि – वह व्यक्ति फर्म या कंपनी के कारोबार का दिन प्रतिदिन सम्पूर्ण नियंत्रण रखता था, अपीलार्थी की दोषसिद्ध अपास्त की जाने योग्य है।
अपीलार्थी को मात्र इसलिए दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि वह उस फर्म का भागीदार था, जिसने ऋृण लिया था या कि वह ऐसे ऋृण के लिए जमानतदार (प्रतिभु) था।
भगीदारी अधिनियम, 1932 सिविल दायित्व बनाता है, और यह भी भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अधीन जमानतदार (प्रतिभू) का दायित्व सिविल दायित्व है। अपीलार्थी का सिविल दायित्व हो सकता है और वह बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को शोध्य ऋण वसूली अधिनियम, 1993 और वित्तीय आस्तियों का प्रतिभूतिकरण और पुनर्गठन तथा प्रतिभूति हित का प्रवर्तन अधिनियम, 2002 के अधीन भी उत्तरदाई हो सकता है।
हालांकि सिविल दायित्व के कारण परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 की धारा 141 के अनुसार दंड विधि में प्रतिनिधिक दायित्व को नहीं बांधा जा सकता है। एन आई एक्ट की धारा 141की उपधारा (1) के अधीन प्रतिनिधिक दायित्व को तभी जोड़ा जा सकता है, जब वह व्यक्ति फर्म या कंपनी के दिन प्रतिदिन के कारोबार का सम्पूर्ण नियंत्रण रखता था। एन आई एक्ट की धारा 141की उपधारा (1) के अधीन प्रतिनिधिक दायित्व निदेशक, प्रबंधक, सचिव, या अन्य अधिकारी के व्यक्तिगत
आचरण, कार्यात्मक या लेन-देन की भूमिका के कारण उत्पन्न हो सकता है, इस बात के होते हुऐ भी कि जब अपराध गठित किया गया तब वह व्यक्ति फर्म या कंपनी के दिन प्रतिदिन के कारोबार का सम्पूर्ण नियंत्रण नहीं रखता था। उपधारा (2) के अधीन प्रतिनिधिक दायित्व तब आकर्षित होता है जब वह अपराध कंपनी के किसी निदेशक, प्रबंधक, सचिव या अन्य अधिकारी की सहमति या मौनानुकूलता किया गया है या उसका किया जाना उसकी किसी उपेक्षा के कारण माना जा सकता है ।