मंगलवार, मई 13, 2025
होमjudgmentsHindi judgmentsSita Soren Versus Union of India | संसदीय विशेषाधिकार आपराधिक अभियोजन में...

Sita Soren Versus Union of India | संसदीय विशेषाधिकार आपराधिक अभियोजन में बचाव नहीं है । नोट फॉर वोट का मामला

परिचय: 

सर्वोच्च न्यायालय की सात-न्यायाधीशों की पीठ ने सोमवार को दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले में, भारत के संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के अधीन संसदीय विशेषाधिकार के  विस्तार और सीमा पर पुनर्विचार किया।मुख्य न्यायाधीश डॉ. धनंजय वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य (सीबीआई/एसपीई) [(1998) 4 एससीसी 626] में पांच-न्यायाधीशों की पीठ के पूर्व निर्णय को उलट  दिया, जिसमें अवधारित किया गया था कि, एक सदस्य संसद या राज्य विधायिका को सदन या उसकी किसी समिति में कही गई किसी बात या दिए गए वोट के संबंध में रिश्वतखोरी के लिए अभियोजन से छूट प्राप्त है।

मामले के तथ्य :

यह मामला झारखंड विधान सभा की सदस्य सीता सोरेन द्वारा दायर एक आपराधिक अपील से उत्पन्न हुआ था, जिन पर राज्यसभा के चुनाव में एक स्वतंत्र उम्मीदवार से रिश्वत लेकर, उसके पक्ष में वोट देने का आरोप लगाया गया था। झारखंड उच्च न्यायालय ने पीवी नरसिम्हा राव (पूर्व) के मामले में बहुमत के दृष्टिकोण पर भरोसा करते हुए उनके विरुद्ध आरोप पत्र और आपराधिक कार्यवाही को अभिखंडित करना से इंकार कर दिया था। मामला अपील में सुप्रीम कोर्ट के 2 न्यायाधीशों की पीठ के पास गया जिसने मामले को बड़ी पीठ के पास भेज दिया । मामले को एक बड़ी पीठ के पास भेजने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अवधारित किया कि पीवी नरसिम्हा राव (पूर्व) के मामले में बहुमत का दृष्टिकोण गलत था और रिश्वतखोरी संविधान के अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के अधीन संसदीय विशेषाधिकार द्वारा संरक्षित नहीं है।

विचारणीय बिंदु :

क्या विधानमण्डल का कोई सदस्य संविधान के 105(2) और 194(2) के अधीन आपराधिक न्यायालय में रिश्वत के आरोप में अभियोजन से छूट का दावा कर सकता है?

न्यायालय का मत :

सात-न्यायाधीशों की पीठ ने अपने 135 पन्नों के फैसले में ऐतिहासिक विकास, संवैधानिक योजना और संसदीय विशेषाधिकार और रिश्वतखोरी पर तुलनात्मक न्यायशास्त्र पर चर्चा की। न्यायालय ने संप्रेक्षित किया कि संसदीय विशेषाधिकार का उद्देश्य संसदीय लोकतंत्र के स्वस्थ कामकाज के लिए विधायकों (विधिनिर्माता ) की स्वतंत्रता व अखंडता सुनिश्चित करना तथा उन्हें भय या पक्षपात के बिना अपने कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम बनाना है। हालाँकि, न्यायालय ने अवधारित किया कि यह विशेषाधिकार आपराधिक आचरण तक विस्तारित नहीं है, जो सदन के सदस्य के रूप में अधिकारों व कर्तव्यों के प्रयोग के स्वतंत्र और प्रतिकूल है।

न्यायालय ने माना कि रिश्वतखोरी एक ऐसा आपराधिक आचरण है जो विधायकों के प्रतिनिधि चरित्र को कमजोर करता है, लोकतंत्र में लोक  के विश्वास को समाप्त करता है और सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी तथा जवाबदेही के संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करता है।

न्यायालय ने यह भी अवधारित किया कि अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के अधीन बचाव उस भाषण या वोट तक सीमित है ,जो सदन या उसकी किसी समिति में दिया या दिया गया है तथा इसमें कोई पूर्ववर्ती या पश्चातवर्ती कार्य शामिल नहीं है, जिसका भाषण या वोट के साथ सांठगांठ या संबंध। न्यायालय ने माना कि रिश्वतखोरी का अपराध धन की स्वीकृति या धन स्वीकार करने के करार के साथ पूरा होता है तथा यह प्राप्तकर्ता  द्वारा अवैध वचन के पालन पर निर्भर नहीं होता है।

न्यायालय ने आगे कहा कि परिणामों का परिदान रिश्वतखोरी के अपराध के लिए विसंगत है और अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के अधीन बचाव का दावा, उस विधायक (विधिनिर्माता) द्वारा नहीं किया जा सकता है, जो एक विशिष्ट तरीके से मत देने के लिए रिश्वत स्वीकार करता है, भले ही वह वास्तव में उस तरीके से वोट डालता हो या नहीं।

न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि राज्यसभा के चुनाव अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के अधीन हैं तथा जो विधायक ऐसे चुनावों में भाग लेते हैं, वे उन्हीं विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों के हकदार हैं, जो उन्हें सदन में  या उसकी कोई समिति प्राप्त है। न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 105(2) और 194(2) में ‘सदन’ के स्थान पर ‘विधानमंडल’ शब्द का उपयोग यह इंगित करता है कि विशेषाधिकार संसदीय प्रक्रियाओं तक फैला हुआ है, जो आवश्यक रूप से सदन के पटल पर नहीं होते हैं।

हालाँकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उसका निर्णय संविधान में परिभाषित विधायिका की शक्तियों, विशेषाधिकारों व  उन्मुक्तियों को निर्धारित या प्रतिबंधित करने का प्रयास नहीं करता है तथा यह केवल संविधान की यथास्थिति के निर्वचन पर न्यायनिर्णयन कर रहा है। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि अपीलकर्ता के मामले के गुणागुण तथा क्या उसने कथित अपराध किया है, इस स्तर पर न्यायालय द्वारा न्यायनिर्णयन नहीं किया जा रहा है और निर्णय मेंअंतर्विष्ट किसी भी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता है कि विचारण के गुण-दोष या उससे उत्पन्न होने वाली किसी अन्य कार्यवाही पर कोई प्रभाव पड़ेगा।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय संसदीय विशेषाधिकार और रिश्वतखोरी पर संवैधानिक न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण योगदान है तथा इसका विधायकों की जवाबदेही और पारदर्शिता और भारत में संसदीय लोकतंत्र के कामकाज पर प्रभावित करता है। यह निर्णय संविधान और कानून के शासन की सर्वोच्चता और संविधान के संरक्षक तथा  व्याख्याकार के रूप में न्यायपालिका की भूमिका की भी पुष्टि करता है।

केस का नाम : सीता सोरेन बनाम भारत संघ 2024 SC
Related articles

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

Most popular

Latest

Subscribe

© All rights reserved