शुक्रवार, फ़रवरी 28, 2025
spot_imgspot_img

uniform civil code kya hai | uniform civil code in hindi | समान नागरिक संहिता

 भारत में “समान सिविल संहिता” एक महत्वपूर्ण विषय है, जो हमेशा सुर्खियों में बना ही रहता है । अभी हाल में 22वें विधि आयोग ने एक लोक सूचना जारी कर आम जन, धार्मिक संगठनों व हित धारकों से समान सिविल संहिता विषय की जांच करने के प्रयोजन से सुझाव मांगे हैं। हालांकि इससे पूर्व 21वां विधि आयोग भी वर्ष 2016 में इस विषय पर लोगों की राय जान चुका है।

समान नागरिक संहिता क्या है ? (what is uniform civil code ?):

समान सिविल संहिता को किसी भी कानून कोई परिभाषा नहीं की गई है। यह तीन शब्दों से मिलकर बना है जिसके आधार पर इसके अर्थ को समझ जा सकता है :

समान(uniform): समानता या निष्पक्षता

सिविल(civil) : व्यवहार या नागरिक से संबंधित

संहिता (code): कानून, नियम या विनियमों का एक व्यवस्थित संग्रह

उपरोक्त शब्दों को संयुक्त रूप से पड़ने से समान सिविल संहिता का यह अर्थ निकलता है :  किसी देश के नागरिकों से संबंधित समान कानून है ।

इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार :

‘समान नागरिक संहिता’ अर्थात् ‘यूनीफार्म सिविल कोड’ का तात्पर्य विश्वस्तरीय प्राचीन देशों में लागू या प्रवर्तित पारिवारिक विधियों एवं साम्पत्तिक विधियों के संहिताकरण से है।

अर्थात भारत के नागरिकों के लिए विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, अभिरक्षा, भरण-पोषण, दत्तक ग्रहण आदि से संबंधित कानूनों को समान रूप से संहिताबद्ध करना ‘समान नागरिक संहिता’ अर्थात् ‘यूनीफार्म सिविल कोड’ कहलाता है ।

सरल शब्दों में कहे तो एक ऐसा कानून जो विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, अभिरक्षा, भरण-पोषण, दत्तक ग्रहण आदि के संबंध में सभी नागरिकों के लिए समान हो चाहे वे किसी भी धर्म या समुदाय से क्यों न हो ।

समान नागरिक संहिता की उत्पत्ति (Origin of Uniform Civil Code):

भारत में समान सिविल संहिता का बीज ब्रिटिश काल के दौरान पड़ा, जब देश में कानूनों का संहिताकरण के लिए विभिन्न विषयों पर मसौदा तैयार करने के लिए चार्टर अधिनियम 1833 की धारा 53 के द्वारा 1835 में पहले विधि आयोग का गठन किया गया। टी.बी .मैकाले,की अध्यक्षता मे चार सदस्य    सी.एच. कैमरून,  जे.एम. मैकलियोड,  जी.डब्ल्यू. एंडरसन और एफ. मिलेट से मिलकर आयोग गठन हुआ। आयोग का प्रमुख कार्य

1.दंडात्मक कानून का संहिताकरण;

  1. गैर-हिन्दुओं और गैर-मुसलमानों पर लागू होने वाला कानून उनके विभिन्न अधिकार (लेक्स लोकी रिपोर्ट);
  2. सिविल और आपराधिक प्रक्रियात्मक कानून का संहिताकरण आदि, थे ।

इस तरह आयोग का ध्यान नागरिक कानून की अनिश्चितता पर गया जो मुफस्सिल क्षेत्रों में गैर-हिन्दुओं और गैर-मुसलमानों पर लागू होता था।

अध्ययन के बाद इस संबंध में एंड्रयू आमोस की अध्यक्षता में 31 अक्टूबर, 1840 को अपनी रिपोर्ट(लेक्स लोसी) प्रस्तुत की, जिसमें इंग्लैंड में लागू कानून को भारत में लागू करने की सिफारिश की गई थी हालांकि हिन्दू और मुसलमानों को इससे बाहर रखा गया था।

इसके बाद सिविल एवं दांडिक कानूनों का पेश किया गया, लेकिन 1859 में महारानी के द्वारा की गई  घोषणा के अनुसार, धार्मिक मामलों में व्यक्तियों को स्वतंत्रता प्रदान की गई और न्यायालयों को लोगों के व्यक्तिगत विधि के अनुसार उनके मामलों को निस्तारित करने के यथा आवश्यक निर्देश दिए गए।

इसके बाद वर्ष 1941 में बी एन राव की अध्यक्षता में हिन्दू विधि समिति का गठन किया। इस समिति ने, एक संहिताबद्ध हिंदू कानून की सिफारिश की जिसमें महिलाओं को समान अधिकार देने का प्रावधान किया गया, साथ ही इस समिति द्वारा वर्ष 1937 के अधिनियम की समीक्षा भी की गई।

तत्पश्चात 1946 में संविधान सभा का गठन किया गया। प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ। बी आर अंबेडकर जी ने एक समान सिविल संहिता का समर्थन किया और एक लंबी बहस के बाद अनुच्छेद 44 के रूप में शामिल कर लिया गया ।

अनुच्छेद 44 के अनुसार:

44 नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता- राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा । 

इस तरह भारत में  नीति निदेशक तत्व के रूप में समान सिविल संहिता को अपनाया गया और राज्य पर इसे बनाने का दायित्व सौंपा गए है । संविधान लागू होने के 72 वर्ष बाद भी राज्य के द्वारा समान सिविल संहिता को लागू नहीं किया जा सका है। हालांकि गोवा एकमात्र राज्य है जहां समान सिविल संहिता लागू है ।

समान सिविल संहिता क्यों आवश्यक है?(why ucc is required)

भारत में जब भी ऐसा कोई मामला आता है, जिसमें पारिवारिक कोई विवाद शामिल हो। हमेशा ही समान सिविल संहिता की चर्चा शुरू हो जाती है। आखिर समान सिविल संहिता की आवश्यकता क्यों है ? समान सिविल संहिता की जरूरत को निम्नलिखित आधार हैं –

समानता (equality) :

भारत के संविधान में अनुच्छेद 14 से 18 तक में समानता का अधिकार दिया गया है, जिसके आधार पर किसी भी व्यक्ति से अयुक्तियुक्त भेदभाव नहीं किया जाएगा।

वर्तमान में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग कानून लागू उन्हीं के हिसाब से मामलों का निपटारा होता है। इनमें कुछ असमानताएं भी है । समान सिविल संहिता के माध्यम से अयुक्तियुक्त भेदभाव को समाप्त किया जा सकेगा ।

लैंगिक न्याय (gender justice):

जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है कि अलग-अलग धर्मों के संबंध में अलग-अलग कानून हैं तथा इन कानूनों में महिलाओं के अधिकार भी भिन्न-भिन्न है आज भी महिलाओं के प्रति भेदभाव होता है जैसे हिंदू मुस्लिम ईसाई कानूनों में एक महिला को तलाक के लिए अलग-अलग उपबंध किए गए हैं।

तथा जो हमारे सामने विभिन्न मामलों के माध्यम से सामने आते हैं जैसे शाह बानो बेगम का मामला सायरा बानो बेगम आदि के मामलों में हमने देखा।

समान सिविल संहिता लैंगिक न्याय अर्थात लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव को दूर करने में सहायक हो सकेगी।

राष्ट्रीय एकता (national equality):

समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता के लिए भी जरूरी है जब देश में सभी धर्मों और समुदाय के लिए एक समान कानून लागू होगा, तो इस देश में कानून के एकीकरण में मदद मिलेगी और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित हो सकेगी।

कानून का सरलीकरण (simplification of law ):

भारत में लागू कानून में कई जटिलताएं विद्यमान है, जो समय-समय पर न्यायालय के समक्ष आती रहती हैं, जिनका निर्धारण माननीय उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय समय-समय पर करते रहते हैं । यदि समान सिविल संहिता को लागू किया जाता है, तो इससे कानून में व्याप्त जटिलताएं वैधानिक स्तर पर ही दूर की जा सकेगी। जिससे कानून सरल हो जाएगा।

शीघ्र न्याय:

कहते हैं कि न्याय में विलंब न्याय से इंकार के समान है। आज अलग-अलग कानून लागू होने से पीड़ित को न्याय मिलने में काफी समय लग जाता है,

क्योंकि जजों व वकीलों को अलग-अलग कानून पढ़ने पड़ते हैं और साथ ही उनके प्रावधान भी भिन्न-भिन्न होने से न्याय पूर्ण निर्णय लेने में काफी समय लग जाता है।

समान सिविल संहिता के लागू होने से कानूनों का सरलीकरण हो जाएगा और एक ही कानून समान रूप से सभी पर लागू होने से शीघ्र न्याय मिलने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

प्रगतिशील और आधुनिक दृष्टिकोण (progressive and morden outlook):

समान सिविल संहिता बनाया जाता है, तो वह आज की सामाजिक परिस्थितियों के हिसाब से आधुनिक दृष्टिकोण अपनाकर बनाया जाएगा, जो प्रगतिशील और आधुनिक दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करेगा।

न्यायिक दृष्टिकोण (judicial point of view) :

न्यायालय समय-समय पर समान सिविल संहिता की आवश्यकता को लेकर कई मामलों में अपनी राय प्रकट कर चुका है :

सबसे पहले न्यायालय ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम AIR (1985) SC 945

के मामले में मुख्य न्यायाधीश वाई. वी. चन्द्रचूड की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने अहमद की अपील निरस्त करते हुए न केवल शाहबानो के मामले में उच्च न्यायालय के निर्णय की पुष्टि किया, अपितु धारा 127 के अन्तर्गत भरणपोषण में वृद्धि के लिए आवेदन करने का भी अधिकार दिया।

तब संविधान पीठ ने एक समान नागरिक संहिता और मुस्लिम व्यक्तिगत विधि में सुधार की आवश्यकता अवश्य बतायी, किन्तु सरकार को एक समान नागरिक संहिता बनाने का निर्देश नहीं दिया।

फिर भी, न्यायालय ने यह अवश्य स्पष्ट कर दिया था कि द.प्र.सं. के प्रावधान सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होंगे, चाहे वे हिन्दू हो या मुसलमान या फिर अन्य धर्मावलम्बी।

संविधानपीठ ने अनुच्छेद 44 कहा कि यह राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने में मददगार होगा, फिर भी इसके लिए आज तक कोई प्रयास नहीं किया गया।

सरला मुद्गल,अन्य बनाम भारत संघ अन्य (1995) 3. SCC 635

इस मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 44 के अन्तर्गत एक समान नागरिक संहिता हेतु भारत सरकार से निवेदन किया। दरअसल इस मामले में तीन याचिकाकर्त्ता हिन्दू (सुनीता गीता रानी सुश्मीता) महिलाओं के प्रतियों ने इस्लाम धर्म स्वीकार करके दूसरी शादी कर ली थी। न्यायालय ने ऐसे विवाह को शुन्य और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत दण्डनीय घोषित किया।

जॉन वलामत्तम बनाम भारत संघ (AIR 2003 SC 2902)

इस मामले में उच्चत्तम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों के पीठ ने समान सिविल सहिंता बनाए जाने के लिए दुख प्रकट करते हुए इसके बनाए जाने की जोरदार संस्तुति की।

मुख्य न्यायमूर्ति वी एन खरे ने कहा कि अनुच्छेद 44 इस धारणा पर आधारित है कि एक सभ्य समाज मे धर्म और व्यक्तिगत विधि मे कोई संबंध नहीं है। अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है किन्तु अनुच्छेद 44 धर्म को सामाजिक और व्यक्तिगत विधि से प्रथक करता है।

अश्विनी उपाध्याय बनाम भारत संघ (2015)

इस जनहित वाद में यही बात पुनः दोहराया गया, कि अनुच्छेद 44 के अन्तर्गत ‘एक समान सिविल सहिंता’ के निर्माण के लिए या अनुच्छेद 44 को प्रभावी बनाने के लिए न्यायालय संसद को निर्देश (परमोदश) जारी नहीं कर सकती और इस मामले में न्यायालय का वही दृष्टिकोण है जो महर्षि अवधेश के मामले में रहा है।

न्यायालय ने स्पष्ट टिप्पणी किया था कि यदि एकबार पीड़ित व्यक्ति (महिला) हमारे समक्ष आए तब हम (न्याय प्रदान करते हुए) उस पर बिचार कर सकते थे, किन्तु आप (याची) न्यायालय का समय बर्बाद कर रहे है। न्यायालय ऐसा परमादेश जारी नहीं कर सकती है। आप संसद के पास जाइए।

शायराबानो बनाम भारत संघ  2017 SC 313

इस मामले में संविधान पीठ के बहुमत ने तीन तलाक अर्थात् तलाक-ए-बिद्दत को संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत समानता के आधार पर निरस्त करके यह स्पष्ट कर दिया है। इतना ही नहीं, इस निर्णय के समर्थन में मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 भी पारित किया गया और मुस्लिम विवाह विधि में व्याप्त एक अतिप्राचीन असंगत प्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया गया, जो कुछ सीमा तक सफल भी रहा।

उपरोक्त निर्णयों के माध्यम से न्यायालय अपनी राय रख चुका है।

विरोध के कारण/ चुनौतियां:

एक पक्ष है जो समान सिविल संहिता का पुरजोर समर्थन करता है वहीं दूसरा पक्ष है जो इसका विरोध करता है उनका विरोध के कुछ कारण या आधार हैं, जो समान सिविल संहिता के सामने चुनौतियां भी हैं।

धार्मिक स्वतंत्रता (religious freedom ):

समान सिविल सहिंता के सामने सबसे बड़ी चुनौती धार्मिक स्वतंत्रता है जो संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में निहित है इसके अंतरगत प्रत्यक्ष व्यक्ति को अपने धर्म का प्रचार प्रसार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है और यहीं विरोध की सबसे बड़ी वजह है।

सांस्कृतिक विविधता (cultural diversity):

भारत में भिन्न-भिन्न धर्म व समुदाय के लोग रहते हैं, जिनकी अपनी भाषा लिपि संस्कृति और परंपराएं हैं। यह भारत की पहचान भी है समान सिविल संहिता को लागू करने में एक सबसे बड़ी चुनौती होगी कि भारत की अनेकता में एकता प्रभावित ना हो।

काल्पनिक भय (imaginary fear):

भारत में विभिन्न धर्मों के लोगों को उनके कानून के हिसाब से अधिकार प्राप्त हैं और उन्हें प्रयोग करते हैं परंतु कुछ अल्पसंख्याक समुदाय का भय है कि कहीं समान नागरिक संहिता के माध्यम से, बहुसंख्यक समुदाय के कानून को थोप दिया जाएगा तथा समान सिविल संहिता उनसे अपने अधिकारों को छीनने का काम करेगा।

राजनीतिक और संघर्षपूर्ण मामले (political and conflict matters ):

समान सिविल सहिंता को लागू करने में एक प्रमुख चुनौती राजनीति मतभेद होगा । जहां एक और सत्तारूढ़ दल इसे लाकर अपने वोट बैंक के रूप में देखते है और वही विपक्षी दल भी अपने राजनीतिक स्वार्थ के चलते इसे लागू करने में अड़चन व संघर्ष को जन्म देने का कार्य करेंगे।

निष्कर्षत : यही कहा जा सकता है की भारत मे समान नागरिक संहिता की आवश्यकता बहुत जरूरी है , क्यों कि आज आधुनिक समाज मे कुछ प्रावधान काफी पुराने और बेकार हो चुके है। सरकार को समान संहिता बनाते समय इस बात का पूरा ध्यान रखना होगा जिससे किसी भी धर्म के लोगों की धार्मिक भावना आहत न और न ही किसी भी धर्मे विशेष की उपेक्षा हो। साथ ही हम सभी को भी अपने धर्म की ऐसी मान्यताओ को छोड़ने का समर्थन करना होगा,  जो आज के एक सभ्य समाज के निर्माण मे बाधाक हो। किसी भी देश की सरकार उसके नागरिकों के हित से बड़ी नहीं होती है ,और उसके द्वारा कोई भी ऐसा कानून नहीं बनाया जा सकता है जो लोक कल्याण की अवधारणा के विपरीत हो, इसलिए सरकार को समान सिविल सहिंता का एक सामान्य प्रारूप जनता के सामने रखना चाहिए , जिससे लोगों के उसके अच्छे बुरे प्रवधनों को समझने और सरकार उनमे परिवर्तन करने का अवसर मिल सके। देश के लिए एक प्रगतिशील और आधुनिक समान सिविल सहिंता का लागू करना आम जान की राय से ही संभव है । इसलिए हम सब को इसके सही ढंग से लागू करने मे सहायता करनी होगी, जिससे विभिन्न धर्मों के लिए एक समान कानून होने के बावजूद भी हमारी अनेकता मे एकता को दुनिया के सामने एक नई ऊंचाई मिल सके ।

यदि आपको यह पोस्ट जानकारीपूर्ण लगी है, तो कृपया इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ साझा करें ताकि हमें अधिक से अधिक  पाठकों/ लोगों तक तक पहुंचने में मदद मिल सके। मूल्यवान व महत्वपूर्ण सामग्री बनाने के लिए हमें प्रेरित करने में, आपका समर्थन महत्वपूर्ण है। आइए एक साथ ज्ञान और प्रेरणा का प्रसार करें!

FAQ:

Q. समान सिविल संहिता किस अनुच्छेद मे है ?

A. अनुच्छेद 44

Q. समान नागरिक संहिता किस राज्य में लागू है?

A. गोवा

Get in Touch

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

spot_imgspot_img
spot_img

Get in Touch

3,646फॉलोवरफॉलो करें
22,200सब्सक्राइबर्ससब्सक्राइब करें

Latest Posts

© All rights reserved