शनिवार, मार्च 1, 2025
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आच्छादन या ग्रहण का सिद्धांत Doctrine of Eclipse in Hindi

आज के इस लेख में हम भारतीय संविधान में वर्णित आच्छादन के सिद्धांत के बारे में जानेंगे। हमारे  संविधान में कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतो का वर्णन किया गया है उन्हीं में से एक है आच्छादन या ग्रहण का सिद्धांत जिसे इंग्लिश में DOCTRINE OF ECLIPSE कहते हैं, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13(1) पर आधारित हैं।

इसे समझने के लिए सबसे पहले हम ग्रहण अर्थात ECLIPSE का अर्थ क्या होता है इस जान लेते है जिससे हमे इस आच्छादन के सिद्धांत को समझने में आसानी हो,

 

 आच्छादन या ग्रहण का अर्थ [MEANING OF ECLIPSE ]

आच्छादन अर्थात ग्रहण का  का शाब्दिक अर्थ  आंशिक या पूर्ण रुप से किसी चीज को ढक लेने से है।

 
ग्रहण का अर्थ हम सूर्य या चंद्र ग्रहण से भी लेते है, OXFORD ENGLISH Dictionary के अनुसार –

 

चंद्रमा या सूर्य का कुछ देर के लिए, पूर्ण रूप से, या आंशिक रूप से पृथ्‍वी वासियों को दिखाई न देना  ग्रहण है।

 

अब साथ में हम संविधान पूर्वविधियां और संविधानोत्तर विधि को भी समझ लेते हैं।

संविधान पूर्व विधियां 

संविधान पूर्व विधियां ऐसी विधियां होती हैं, जो संविधान के लागू होने से पहले ही निर्मित या अस्तित्व में है। जैसे–
भारतीय दंड संहिता,1860 
भारतीय साक्ष्य अधिनिय,1872
संविदा अधिनियम,1872 आदि।

संविधानोत्तर विधियां

संविधानोत्तर विधियां ऐसी विधियां है जो संविधान लागू होने के बाद में राज्य द्वारा बनाई गई है।
जैसे–
दंड प्रक्रिया संहिता,1973 
किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण अधिनियम)2015 आदि।
 
आच्छादन का सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 13 (1) में निहित है। इसलिए एक बार हम अनुच्छेद 13(1) क्या प्रावधान करता है , इसे भी देख लेते हैं,

Article 13(1)

“ इस संविधान के प्रारंभ होने के ठीक पहले भारत के राज्य क्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियां उस मात्रा तक शुन्य होगी जिस तक वह भाग 3 के उपबंध से असंगत हैं।”
यानि कि संविधान के लागू होने से पूर्व कोई विधि मूल अधिकारों से असंगत है अर्थात मूल अधिकार का उल्लंघन करती है, तो वह संविधान के लागू होने के बाद से मूल अधिकारों से आच्छादित हो जाएगी और वह विधि इस कारण से मृत् प्राय: (शून्य) हो जाती है और इस कारण उनका प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता।
इसका मतलब ऐसे विधियां प्रारंभ से ही शुन्य नहीं होती या यह नहीं कह सकते कि ऐसे कानून लुप्त हो गए हो हैं, वे केवल मूल अधिकारों के द्वारा आच्छादित हो जाते हैं या उन पर मूल अधिकार का ग्रहण लग जाता है,। आच्छादन/ गृहण को हटा देने पर ऐसी विधियां पुनः सजीव होकर लागू हो सकती हैं।
यह भी पढ़े –
 
माननीय उच्चतम न्यायालय का मत:
 
भीखाजी बनाम मध्यप्रदेश राज्य AIR 1955
 
माननीय उच्चतम न्यायालय ने भीखाजी बनाम मध्यप्रदश के मामले में आच्छादन के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
“इस मामले में राज्य को एक संविधान पूर्व अधिनियम (बरार मोटर यान अधिनियम, 1947) के अनुसार मोटर व्यापार को अधिगृहीत करने की शक्ति थी, लेकिन बाद में 1950 में संविधान के लागू होने पर वह शुन्य हो गया क्योंकि यह उपबंध अनुच्छेद 19 (1)(g) का उल्लंघन करता था। किंतु बाद में 1951 में संविधान में प्रथम संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 19 (6) में संशोधन किया गया और उसमें राज्य को किसी व्यापार में एकाधिकार सृजित करने की शक्ति प्रदान की।
सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि संशोधन के कारण ऐसी मृतप्राय विधि पुनः सजीव हो गई है और इस कारण यह उसी दिन से प्रवर्तनीय हो जाती हैं, क्यों कि संशोधन ने उस विधि पर से अनुच्छेद 19(1)(g) में प्राप्त मूल अधिकार का आच्छादन या ग्रहण हटा दिया है। ऐसे विधि असंगतता से मुक्त है और ऐसे कानून को पुन: बनाना जरूरी नहीं है। 
 
इसके बाद में यह प्रश्न आया कि –
 आच्छादनका सिद्धांत संविधानोत्तर विधियों पर  लागू होता है या नहीं?
सुप्रीम कोर्ट ने 

गुजरात राज्य बनाम श्री अंबिका मिल्स AIR 1974 SC1300 

इस मामले में उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए निर्णय दिया कि कोई भी संविधानोंत्तर विधियां किसी भी मूल अधिकार से असंगत होने पर आरंभ से ही शुन्य नहीं होगी और यदि अनुच्छेद 19 नागरिकों के मूल अधिकारों को छीनता है या कम करता है तो वह केवल नागरिकों के संबंध में होगा ना कि और अनागरिक के संबंध में।
और वैसे अनागरिक के संबंध में उसके शुन्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि अनुच्छेद 19 में प्रदत मूल अधिकार अनागरिक को प्राप्त ही नहीं है।
इसलिए अनागरिक इसके शुन्य होने का फायदा नहीं उठा सकता। इसके साथ ही 

दुलारे लोध बनाम एडिशनल जज कानपुर AIR 1985 SC1260 के वाद में निर्णय दिया गया कि आच्छादन का सिद्धांत संविधानोत्तर विधियों पर भी लागू होता है, भले ही वे नागरिक से संबंधित ही क्यों ना हो।

 अतः  कहा जा सकता है कि आच्छादन के सिद्धांत का तात्पर्य संविधान से पहले लागू की गई विधियां यदि मूल अधिकारों का उल्लंघन करती हैं तो वे उस असंगतता की मात्रा तक शून्य होती है, लेकिन उन्हें बाद में सशोधन करके पुनः लागू किया जा सकता है।
 
 

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