Sunday, September 22, 2024
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संविदा क्या है एवं संविदा के आवश्यक तत्व क्या होते हैं | samvida kya hai evam samvida ke avashyak tatv

संविदा क्या है एवं संविदा के आवश्यक तत्व क्या होते हैं | what is contract and its essential elements

आज के इस लेख में आप पढ़ेंगे संविदा क्या है एवं संविदा के आवश्यक तत्व क्या होते हैं? इस क्रम में सबसे पहले संविदा क्या होती है? इस पर बात करेंगे फिर उसके उपरांत संविदा के आवश्यक तत्वों को जानेंगे ।

भारत में संविदा का विस्तार संविदा अधिनियम 1872 के प्रवर्तन के पहले से ही विद्यमान रहा है । मनु संहिता के अनुसार प्राचीन समय में लोग अपने द्वारा दिए गए वचन का पालन करना अपना परम कर्तव्य मानते थे। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य को भंग करता था तो उसे पाप का भागीदार माना जाता था। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने वचनों का पालन करते थे और राजा को ऐसे कर्तव्य पालन न करने वाले व्यक्ति को दंडित करने का अधिकार होता था ।

संविदा शब्द की उत्पत्ति :-

संविदा शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द युग्म “CON” तथा “TRAHERE” से मन जाता है जिसमे con का अर्थ “साथ-साथ या “एक साथ” तथा TRAHERE का अर्थ “आकर्षित करना” । बाद मे इनका संयुक्त रूप से “CONTRAHERE” अर्थात “CONTRACTUM” के रूप में प्रयोग किया जाने लगा जिसका अर्थ “to bring together” अर्थात “एक साथ लाने के लिए” के लिए प्रयुक्त होता है ।

संविदा क्या है ? what is contract?

संविदा को भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 2(h) में परिभाषित किया गया है। इस परिभाषा को जानने से पूर्व विधिवेताओं द्वारा की गई परिभाषा को जान लेते हैं।

संविदा का सामान्य अर्थ:

“ दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा अपने दिए गए वचनों के पालन हेतु दायित्व उत्पन्न करना संविदा है ।

विधिशास्त्रियों द्वारा दी गयी परिभाषा (Definitions given by Jurists)

सॉमण्ड (Salmond) के अनुसार-

संविदा एक ऐसा करार है जो दो पक्षों के मध्य दायित्व का सृजन करता है एवं उसकी व्याख्या करता है।”

सर विलियम एन्सन (Sir William Anson) के अनुसार-

“संविदा से आशय दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच ऐसे करार या समझौते से है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो तथा जिसके द्वारा एक या एक से अधिक पक्षकार, दूसरे पक्षकारों के विरुद्ध किसी काम को करने अथवा न करने के लिए कुछ अधिकार अर्जित कर लेता है या कर लेते हैं।

धारा 2(h) के अनुसार:

“वह करार, जो विधितः प्रवर्तनीय हो, संविदा है;”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है की संविदा एक ऐसा विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार है, जो दो पक्षकारों के बीच उनके द्वारा दिए गए वचनों के पालन के लिए दायित्व उत्पन्न करता है ।

अधिनियम की धारा 2h के अनुसार संविदा की परिभाषा में मुख्य रूप से दो बातों का होना आवश्यक है –

1 करार हो – पक्षकारों के मध्य करार होना चाहिए। हर एक वचन और ऐसे वचनों का हर एक संवर्ग, जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल हो, करार कहलाता है।

संविदा विधि के अधीन करार दो प्रकार के बताए गए हैं

  1. 1.विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार
  2. 2.शून्य करार

2. विधितः प्रवर्तनीय करार – संविदा के दूसरी महत्वपूर्ण बात है की करार ऐसा होना चाहिए जिसे विधि के द्वारा लागू करवाया जा सके ।

अतः स्पष्ट है कि केवल वे ही करार संविदा हो सकते है जो विधित: प्रवर्तनीय हो “सभी करार संविदा नहीं है किन्तु सभी संविदा करार है।“

कौन से करार संविदा हैं-

कौन से करार संविदा है इस संबंध में प्रावधान भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 10 के अधीन किया गया है जो इस प्रकार है – सब करार संविदाएं हैं, यदि वे संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतन्त्र सम्मति से किसी विधिपूर्ण प्रतिफल के लिए और किसी विधिपूर्ण उद्देश्य से किए गए हैं और एतद्द्वारा अभिव्यक्ततः शून्य घोषित नहीं किए गए हैं।इसमें अन्तर्विष्ट कोई भी बात भारत में प्रवृत्त और एतद्द्वारा अभिव्यक्तः निरसित न की गई किसी ऐसी विधि पर, जिसके द्वारा किसी संविदा का लिखित रूप में या साक्षियों की उपस्थिति में किया जाना अपेक्षित हो, या किसी ऐसी विधि पर जो दस्तावेजों के रजिस्ट्रीकरण से सम्बन्धित हो प्रभाव न डालेगी।

उक्त धार में वर्णित दशाओं के विद्यमान होने पर ही एक करार को विधि द्वारा प्रवर्तनीय कहा जाता है ।

संविदा के आवश्यक तत्व  (essential elements of contract) :

अधिनियम की धारा 2h एवं धारा 10 के संयुक्त रूप से पढ़ने पर उनमें वर्णित विद्यमान होना भी आवश्यक होता है। इसलिए संविदा के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं –

  1. प्रस्ताव एवं स्वीकृति
  2. करार
  3. सक्षम पक्षकार
  4. स्वतंत्र सहमति
  5. .विधिपूर्ण उद्देश्य एवं प्रतिफल हो
  6. अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित न् हो
  7. लिखित एवं पंजीबद्ध हो

1.प्रस्ताव एवं स्वीकृति:- 

एक वैध संविदा के लिए प्रस्ताव एवं स्वीकृति का होना आवश्यक होता है क्यों कि करार अथवा संविदा के लिए प्रथम चरण होता है। इसके माध्यम से ही कोई व्यक्ति अपनी इच्छा को किसी अन्य व्यक्ति के सम्मुख प्रकट करता और जब वह अन्य व्यक्ति उस पर अपनी अनुमति देता है तब वह स्वीकृति होती है, जो करार अथवा संविदा का दूसरा चरण होता है । धारा 2(a) के अनुसार: “जब कि एक व्यक्ति, किसी बात को करने या करने से प्रविरत रहने की अपनी रजामंदी किसी अन्य को इस दृष्टि से संज्ञापित करता है कि ऐसे कार्य या प्रविरति के प्रति उस अन्य की अनुमति अभिप्राप्त करे तब वह प्रस्थापना करता है, यह कहा जाता है।”

धारा 2(b) के अनुसार प्रस्ताव स्वीकृत कहा जाता है , जब कि वह व्यक्ति, जिससे प्रस्थापना की जाती है। उसके प्रति अपनी अनुमति संज्ञापित करता है ।

और जब प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता है तो वह वचन कहलाता है ।

उदाहरण : A, B से उसकी कार खरीदने की प्रस्तवना करता है , B इस प्रस्तावना के अनुसरण मे अपनी कार A को बेचने के लिए राजी (सहमत)  हो जाता है । इस प्रकार A और B के बीच कार बेचने-खरीदने का एक वचन कहलाता है। 

2. करार:- 

संविदा के लिए दूसरा आवश्यक तत्व करार होता है क्यों कि करार से ही संविदा का निर्माण होता है । करार को धारा 2(e) मे परिभाषित किया गया है – “हर एक वचन और ऐसे वचनों का हर एक संवर्ग, जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल हो, करार कहलाता है।”

अर्थात करार प्रस्ताव, स्वीकृत एवं प्रतिफल से मिलकर बनाता है ।

प्रस्तावना(proposal) + स्वीकृति (acceptance) +प्रतिफल (consideration) = करार (agreement)

3. सक्षम पक्षकार हो :

संविदा के लिए पक्षकारों का सक्षम होना आवश्यक होता है, यदि पक्षकार सक्षम नहीं हैं तो ऐसी संविदा वैध नहीं होगी । संविदा करने के लिए कौन सक्षम है इस संबध मे धारा 11 मे उपबंध है, जिसके अनुसार “हर ऐसा व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम है, जो उस विधि के अनुसार, जिसके वह अध्यधीन है प्राप्तवय हो और जो स्वस्थचित्त हो,और किसी विधि द्वारा, जिसके वह अध्यधीन है, संविदा करने से निरर्हित न हो।” अर्थात निम्न व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम होगा –

(I) जो वयस्क हो

(II) जो स्वस्थचित्त हो

(III) विधि द्वारा संविदा करने के लिए योग्य हो

मोहरी बीबी बनाम धर्मोंदास घोष (1903 ) PC

इस वाद मे प्रीवी काउन्सल ने निर्णय दिया कि अव्ययस्क के साथ की गई संविदा शून्यकरणीय न होकर पूर्ण रूप से शून्य होती है । अर्थात अवयस्क के साथ संविदा आरंभ से ही शून्य होती है ।

उदाहरण : वह स्वस्थचित्त मनुष्य, जो ज्वर से चित्तविपर्यस्त है या जो इतना मत्त है कि वह संविदा के निबंधनों को नहीं समझ सकता या अपने हितों पर उसके प्रभाव के बारे में युक्तिसंगत निर्णय नहीं ले सकता तब तक संविदा नहीं कर सकता जब तक ऐसी चित्तविपर्यस्तता या मत्तता बनी रहे।

4.स्वतंत्र सहमति हो :

संविदा को विधि द्वारा प्रवर्तनीय होने के लिए आवश्यक है कि वह पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति से की गई हो अन्यथा वह शून्यकरणीय होगी । सहमति स्वतंत्र काही जाती इस संबंध मे धारा 14 मे प्रावधान किया गया है जिसके अनुसार –

सम्मत्ति स्वतन्त्र तब कही जाती है जब कि वह—

(1) न तो धारा 15 में यथापरिभाषित प्रपीड़न द्वारा कारित हो;
(2) न धारा 16 में यथापरिभाषित असम्यक् असर द्वारा कारित हो;
(3) न धारा 17 में यथापरिभाषित कपट द्वारा कारित हो;
(4) न धारा 18 में यथापरिभाषित दुर्व्यपदेशन द्वारा कारित हो;
(5) न भूल द्वारा कारित हो, किन्तु यह बात धाराओं 20, 21 और 22 के उपबंधों के अध्यधीन है ।

सम्मति ऐसे कारित तब कही जाती है जब कि वह ऐसा प्रपीड़न, असम्यक् असर, कपट, दुर्व्यपदेशन या भूल न होती तो न दी जाती.

उदाहरण:

ख को प्रवंचित करने के आशय से क मिथ्या व्यपदेशन करता है कि क के कारखाने में पांच सौ मन नील प्रतिवर्ष बनाया जाता है और तद्वारा ख को वह कारखाना खरीदने के लिए उत्प्रेरित करता है। यहाँ ख की सहमति स्वतंत्र नहीं है इसलिए संविदा ख के विकल्प पर शून्यकरणीय है।

5.विधिपूर्ण उद्देश्य एवं प्रतिफल हो:

संविदा के लिए आवश्यक है कि करार का प्रतिफल या उद्देश्य विधिपूर्ण हो । करार का प्रतिफल या उद्देश्य विधिपूर्ण होते है ।निम्न परिस्थितियों को छोड़कर जब कि-

वह विधि द्वारा निषिद्ध हो; अथवा

वह ऐसी प्रकृति का हो कि यदि वह अनुज्ञात किया जाए तो वह किसी विधि के उपबंधों को विफल कर देगा; अथवा

वह कपटपूर्ण हो; अथवा

उसमें किसी अन्य के शरीर या सम्पत्ति को क्षति अन्तर्वलित. विवक्षित हो अथवा न्यायालय उसे अनैतिक या लोकनीति के विरुद्ध माने।

इन दशाओं में से हर एक में करार का प्रतिफल या उद्देश्य विधिविरुद्ध कहलाता है हर एक करार, जिसका उद्देश्य या प्रतिफल विधिविरुद्ध हो, शून्य है।

उदाहरण :

क वह वचन देता कि यदि ग, जिसे ख को 1,000 रुपए है, उसे देने में असफल रहा तो वह ख को छह मास के बीतते ही 1,000, रुपए देगा । ख तदनुसार ग को समय देने का वचन देता है। यहां हर एक पक्षकार का वचन दूसरे पक्षकार के वचन के लिए प्रतिफल है और विधिपूर्ण प्रतिफल है।

6.अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित न हो:

संविदा के लिए आवश्यक है कि कोई करार अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित न किया गया हो । यदि वह अधिनियम के अन्तर्गत शून्य है तो उसमे संविदा के शेष तत्वों के होने पर भी वह विधित प्रवर्तनीय करार नहीं हो सकता है । 

संविदा अधिनियम के निम्नलिखित प्रावधानों के अधीन करार को शून्य घोषित किया गया है :

      • धारा 20 जहां दो पक्षकारों ने भूल के अधीन करार किया हो 
      • धारा 25 प्रतिफल के बिना किया गया करार । 
      • धारा 26 विवाह का अवरोधक करार किया हो । 
      • धारा 27 व्यापार का अवरोधक करार किया हो । 
      • धार 28 विधिक कार्यवाहियों के अवरोधक करार किया हो । 
      • धारा 29 जहां करार का अर्थ अनिश्चित हो । 
      • धारा 30 बाजी के लिए करार हो । 
      • धारा 36 असंभव घटनाओ पर आधारित कोई करार हो । 
      • धारा 56 असंभव कार्य को करने के लिए करार हो 

 

7.लिखित एवं पंजीबद्ध हो:

संविदा के लिए यह आवश्यक तत्व हर एक संविदा मे विध्यमान होना जरूरी नहीं है क्यों की संविदा मौखिक या लिखित या आचरण द्वारा हो सकती है । लेकिन यदि किसी विधि द्वारा लिखित मे होना या पंजीबद्ध होना आवश्यक है तो उस दशा मे उसे लिखित एवं पंजीबद्ध होना चाहिए ।

लेख पर आधारित प्रश्न :

संविदा से आप क्या समझते हैं एवं आवश्यक तत्वों को व्याख्या सहित स्पष्ट करें ?

 

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