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परिसीमा अधिनियम,1963 | limitation act,1963 in hindi

परिसीमा अधिनियम, 1963

[Act No.36 of 1963]

(5th October,1963)

वादों और अन्य कार्यवाहियों की परिसीमा और तत्सम्पृक्त प्रयोजनों से संबंधित विधि का समेकन और
संशोधन करने के लिए अधिनियम ।                            भारत गणराज्य के चौदहवें वर्ष में संसद द्वारा निम्नलिखित रूप से यह
अधिनियमित हो 
 भाग 1 : प्रारंभिक

1.संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारंभ-
(1) यह अधिनियम परिसीमा अधिनियम, 1963 कहा जा सकेगा।
(2) इसका विस्तार 1[***] संपूर्ण भारत पर है ।
(3) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जिसे केन्द्रीय सरकार, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे ।

2. परिभाषाएँ – इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो-
(a) “आवेदक” के अन्तर्गत आता है – —
(i) अर्जीदार;
(ii) वह व्यक्ति, जिससे या जिसके माध्यम से आवेदक आवेदन करने का अपना अधिकार व्युत्पन्न करता है;
(iii) वह व्यक्ति, जिसकी सम्पदा का प्रतिनिधित्व आवेदक द्वारा निष्पादक, प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के
तौर पर किया जाता है।

(b) आवेदन; के अन्तर्गत अर्जी आती है।

(c) “विनिमय-पत्र” के अन्तर्गत हुण्डी या चैक आते हैं;

(d) “बन्धपत्र” के अन्तर्गत ऐसी कोई लिखत आती है, जिसके द्वारा कोई व्यक्ति किसी अन्य को धन देने के लिए अपने को इस शर्त पर बाध्यता के अधीन कर लेता है कि यदि कोई विनिर्दिष्ट कार्य किया जाए या न किया जाए, जैसी भी स्थिति हो, तो वह बाध्यता शून्य हो जाएगी;

(e) “प्रतिवादी” के अन्तर्गत आता है-

(i) वह व्यक्ति जिससे या जिसके माध्यम से प्रतिवादी यह दायित्व व्युत्पन्न करता है कि उस पर वाद लाया जा
सके;
(ii) वह व्यक्ति जिसकी संपदा का प्रतिनिधित्व प्रतिवादी द्वारा निष्पादक, प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के रूप
में किया जाता है।
(f) “सुखाचार” के अन्तर्गत आता है संविदा से उद्भूत न होने वाला ऐसा अधिकार जिसके द्वारा कोई व्यक्ति किसी अन्य की भूमि के किसी भाग को या किसी अन्य की भूमि में उगी हुई या उससे संलग्न या उस पर अस्तित्ववान् किसी चीज को हटाने और अपने लाभ के लिए विनियोजित करने का हकदार होता है;
(g) “विदेश” से अभिप्रेत है भारत से भिन्न कोई भी देश।

(h) “सद्भाव” कोई भी बात, जो सम्यक् सतर्कता और ध्यान से नहीं की गई है, सद्भावपूर्वक
की गई नहीं समझी जाएगी;                                        (i)वादी; के अन्तर्गत आता है-
(i) वह व्यक्ति जिससे या जिसके माध्यम से वादी वाद लाने का अपना अधिकार व्युत्पन्न करता है;
(ii) वह व्यक्ति जिसकी सम्पदा का प्रतिनिधित्व वादी द्वारा निष्पादक, प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के रूप में
किया जाता है;
(j ) “परिसीमा काल ” से वह परिसीमा काल अभिप्रेत है, जो किसी वाद ,अपील या आवेदन के लिए अनुसूची द्वारा विहित है और विहित कालसे यह परिसीमा काल अभिप्रेत है जो उस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार संगणित परिसीमा काल हो।

(k) “वचनपत्र” से ऐसी लिखत अभिप्रेत है, जिसके द्वारा उसका रचियता किसी अन्य को धन की कोई विनिर्दिष्ट राशि उसमें परिसीमित करते समय पर या मांग की जाने पर या दर्शन पर देने के लिए आत्यन्तिक्तः वचनबद्ध होता है;

(l) “वाद ” के अन्तर्गत अपील या आवेदन नहीं आता है।

(m) अपकृत्य से ऐसा सिविल दोष अभिप्रेत है जो केवल संविदा भंग या न्यासभंग न हो;

(n) “न्यासी” के अन्तर्गत बेनामीदार, बन्धक की तुष्टि हो जाने के पश्चात् कब्जे में बना रहने वाला बन्धकदार या हक के बिना सदोष कब्जा रखने वाला व्यक्ति नहीं आता।

  भाग 2 : वादों, अपीलों और आवेदनों की परिसीमा

3. परिसीमा द्वारा वर्जन- (1) यह धारा 4 से 24 तक (जिनके अन्तर्गत ये दोनों धाराएँ आती हैं), अन्तर्विष्ट उपबंधों के अध्यधीन यह है कि विहित काल के पश्चात् हर संस्थित वाद, की गई अपील और किया गया आवेदन खारिज कर दिया जाएगा यद्यपि प्रतिरक्षा के तौर पर परिसीमा की बात उठाई न गई हो।
(2) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए यह है कि-
(क) वाद की संस्थिति-
(i) मामूली दशा में तब होती है, जब वादपत्र उचित ऑफिसर के समक्ष उपस्थित किया जाता है;
(ii) अकिंचन की दशा में तब होती है, जब अकिंचन के तौर पर वाद लाने की इजाजत के लिए उसके द्वारा आवेदन किया जाता है; तथा
(iii) उस कम्पनी के विरुद्ध दावे की दशा में जिसका न्यायालय द्वारा परिसमापन किया जा रहा हो तब होती है जब दावेदार के दावे का परिदान शासकीय समापक को पहली बार कारित किया जाता है।
(ख) मुजरा या प्रतिदावे के तौर पर दावा एक पृथक् वाद माना जाएगा, और यह समझा जाएगा कि ऐसा दावा
(i) मुजरे की दशा में, उसी तारीख को जिसको यह वाद संस्थित किया गया हो, जिसमें मुजरे का अभिवचन किया गया है;
(ii) प्रतिदावे की दशा में उस तारीख को जिसको न्यायालय में प्रतिदावा किया गया हो; संस्थित किया गया समझा जाएगा;
(ग) उच्च न्यायालय में प्रस्ताव की सूचना द्वारा आवेदन तब होता है, जब आवेदन उस न्यायालय के उचित ऑफिसर के समक्ष उपस्थित किया जाता है।

4. विहित काल का अवसान जब न्यायालय बन्द हो- जहाँ कि किसी वाद, अपील या आवेदन के लिए विहित काल का अवसान किसी ऐसे दिन होता है जिस दिन न्यायालय, बन्द हो, वहाँ उस दिन वाद संस्थित किया जा सकेगा, अपील की जा सकेगी या आवेदन किया जा सकेगा जिस दिन न्यायालय फिर खुले।

स्पष्टीकरण: न्यायालय इस धारा के अर्थ के भीतर उस दिन बन्द समझा जाएगा जिस दिन वह अपने काम के नियमित काल के किसी भी भाग में बन्द रहे।

5. विहित काल का कतिपय दशाओं में विस्तारण- कोई भी अपील या कोई भी आवेदन, जो सिविल प्रक्रिया
संहिता, 1908 (1908 का 5) के आदेश 21 के उपबंधों में से किसी के अधीन के आवेदन से भिन्न हो, विहित
काल के पश्चात् ग्रहण किया जा सकेगा यदि अपीलार्थी या आवेदक, न्यायालय का यह समाधान कर दे कि
उसके पास ऐसे काल के भीतर अपील या आवेदन न करने के लिए पर्याप्त हेतुक था ।

स्पष्टीकरण: यह तथ्य कि अपीलार्थी या आवेदक विहित काल का अभिनिश्चय या संगणना करने में उच्च न्यायालय के किसी आदेश, पद्धति या निर्णय के कारण भुलावे में पड़ गया था, इस धारा के अर्थ के भीतर पर्याप्त हेतुक हो सकेगा।

6. विधिक निर्योग्यता- (1) जहाँ कि कोई ऐसा व्यक्ति, जिसे वाद संस्थित करने या किसी डिक्री के निष्पादन के
लिए आवेदन करने का हक हो उस समय, जब से विहित काल की गणना की जानी है, अप्राप्तवय या पागल
या जड़ हो, वहाँ उस निर्योग्यता का अन्त होने के पश्चात् वह उतने ही काल के भीतर वाद संस्थित या आवेदन
कर सकेगा जितना उसे अन्यथा अनुसूची के तीसरे स्तम्भ में तदर्थ विनिर्दिष्ट समय से अनुज्ञात होता ।

(2) जहाँ कि ऐसा व्यक्ति, उस समय, जब से विहित काल की गणना की जानी है, ऐसी दो निर्योग्यताओं से
ग्रस्त हो अथवा जहाँ कि वह अपनी निर्योग्यता का अंत होने के पूर्व किसी दूसरी निर्योग्यता से ग्रस्त हो जाए,
वहाँ दोनों निर्योग्यताओं का अन्त होने के पश्चात् उतने ही काल के भीतर वाद संस्थित या आवेदन कर
सकेगा जितना अन्यथा ऐसे विनिर्दिष्ट समय से अनुज्ञात होता ।
(3) जहाँ कि नियोग्यता उस व्यक्ति की मृत्यु तक बनी रहे वहाँ विधिक प्रतिनिधि उसकी मृत्यु के पश्चात् उतने
ही काल के भीतर बाद संस्थित या आवेदन कर सकेगा जितना उसे अन्यथा ऐसे विनिर्दिष्ट समय से अनुज्ञात
होता है ।

(4) जहाँ कि उपधारा (3) में निर्दिष्ट विधिक प्रतिनिधि जिस व्यक्ति का वह प्रतिनिधित्व करता है, उसकी मृत्यु
की तारीख को ऐसी किसी निर्योग्यता से ग्रस्त हो वहां उपधाराओं (1) और (2) में अन्तर्विष्ट नियम लागू होंगे ।

(5) जहाँ कि निर्योग्यता के अधीन कोई व्यक्ति निर्योग्यता के अंत हो जाने के पश्चात् किन्तु उस काल के भीतर जो उसके लिए इस धारा के अधीन अनुज्ञात है, मर जाए वहाँ उसका विधिक प्रतिनिधि उसकी मृत्यु के पश्चात् उसी काल के भीतर वाद संस्थित या आवेदन कर सकेगा जितना उस व्यक्ति को अन्यथा उपलब्ध होता यदि उसकी मृत्यु न हुई होती ।

स्पष्टीकरण – इस धारा के प्रयोजनों के लिए अप्राप्तवय के अन्तर्गत गर्भस्थ अपत्य आता है ।

7. कई व्यक्तियों में से एक की निर्योग्यता-जहाँ कि वाद संस्थित करने या डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन करने के लिए संयुक्ततः हकदार व्यक्तियों में से कोई एक ऐसी किसी निर्योग्यता के अधीन हो और उस व्यक्ति की सहमति के बिना उन्मोचन दिया जा सकता हो, वहाँ उन सबके विरुद्ध समय का चलना आरम्भ हो जाएगा, किन्तु जहाँ कि ऐसा उन्मोचन न दिया जा सकता हो वहाँ उनमें से किसी के भी विरुद्ध तब तक समय का चलना आरम्भ न होगा जब तक उनमें से कोई एक अन्यों की सहमति के बिना ऐसा उन्मोचन देने के लिए समर्थ न हो जाए या उस निर्योग्यता का अन्त न हो जाए।

स्पष्टीकरण 1- यह धारा हर प्रकार के दायित्व से, जिसके अन्तर्गत स्थावर संपत्ति संबंधी दायित्व आता है, उन्मोचन को लागू होती है।
स्पष्टीकरण 2- मिताक्षरा विधि द्वारा शासित हिन्दू अविभक्त कुटुम्ब का कर्ता कुटुम्ब के अन्य सदस्यों की सहमति के बिना इस धारा के प्रयोजनों के लिए उन्मोचन देने के लिए समर्थ केवल तब समझा जाएगा जबकि वह अविभक्त कुटुम्ब की संपत्ति का प्रबंध करता हो ।

8. विशेष अपवाद-  धारा 6 या धारा 7 की कोई बात शुफा अधिकारों को प्रवर्तित कराने के वादों को लागू नहीं होती और न किसी वाद अथवा आवेदन के परिसीमा काल को निर्योग्यता के अन्त से या उससे ग्रस्त व्यक्ति की मृत्यु से तीन वर्ष से अधिक विस्तारित करने वाली समझी जाएगी ।

9. समय का निरन्तर चलते रहना- जहाँ कि एक बार समय का चलना प्रारम्भ हो जाए वहाँ वाद संस्थित करने या आवेदन करने की किसी भी पाश्विक निर्योग्यता या अयोग्यता से वह नहीं रुकता ।
परन्तु; जहाँ कि किसी लेनदार की सम्पदा का प्रशासन-पत्र उसके ऋणी को अनुदत्त कर दिया गया हो वहाँ ऐसे ऋण को वसूल करने के बाद के परिसीमा का चलते रहना तब तक निलम्बित रहेगा जब तक वह प्रशासन चलता रहे ।

10. न्यासियों तथा उनके प्रतिनिधियों के विरुद्ध वाद-  इस अधिनियम के पूर्वगामी उपबंधों में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते भी, किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध, जिसमें संपत्ति किसी विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिए न्यास निहित हुई हो अथवा उसके विधिक प्रतिनिधियों या समनुदेशितियों के विरुद्ध (जो मूल्यवान प्रतिफलार्थ समनुदेशिती न हों) उसके या उनके हस्तगत ऐसी संपत्ति या उसके आगमों का पीछा करने के प्रयोजन से या उस संपत्ति या उसके आगमों के लेखा के लिए कोई वाद  कितना भी समय बीत जाने के कारण वर्जित न होगा ।

स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजनों के लिए किसी हिन्दू, मुसलमान या बौद्ध धार्मिक या खैराती बिन्यास
समाविष्ट कोई भी संपत्ति एक विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिए न्यास निहित समझी जाएगी और सम्पति का
प्रबंधक उसका न्यासी समझा जाएगा ।

11. जिन राज्य क्षेत्रों पर इस अधिनियम का विस्तार है उनके बाहर की गई संविदाओं के आधार पर वाद-
(1) जम्मू-कश्मीर राज्य या विदेश में की गई संविदाओं के आधार पर उन राज्यक्षेत्रों में, जिन पर धाराएँ इस अधिनियम का विस्तार है. संस्थित किए गए बाद इस अधिनियम में अन्तर्चिष्ट परिसीमा विषयक नियमों के अध्यधीन होंगे।

(2) जम्मू-कश्मीर राज्य या किसी विदेश में प्रवृत्त परिसीमा विषयक कोई भी नियम उस राज्य या विदेश में की गई किसी संविदा पर आधारित वाद में, जो उक्त राज्यक्षेत्रों में संस्थित किया गया हो, तब के सिवाय प्रतिरक्षा न होगा जबकि

(क) उस नियम में उस संविदा को निर्वाचित कर दिया हो; और

(ख) पक्षकार ऐसे नियम द्वारा विहित काल के दौरान उस राज्य या विदेश के अधिवासी थे ।

भाग 3 : परिसीमा काल की संगणना

12. विधिक कार्यवाहियों में समय का अपवर्जन- (1) किसी वाद, अपील या आवेदन के परिसीमा काल की संगणना करने में वह दिन अपवर्जित कर दिया जाएगा, जिससे ऐसे परिसीमा काल की गणना की जानी है।
(2) किसी अपील के लिए अथवा ऐसे आवेदन के लिए, जो अपील की इजाजत या पुनरीक्षण के, या किसी निर्णय के पुनर्विलोकन के लिए हो, परिसीमा काल की संगणना करने में वह दिन, जिस दिन परिवादित निर्णय सुनाया गया था तथा उस डिक्री, दण्डादेश या आदेश की, जिसकी अपील की गई है या जिसका पुनरीक्षण वा पुनर्विलोकन ईप्सित है प्रतिलिपि अप्त करने के लिए अपेक्षित समय अपवर्जित कर दिया जाएगा।

(3) जहाँ कि किसी डिक्री या आदेश की अपील की जाती है या उसका पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन ईप्सित है
या जहाँ कि किसी डिक्री या आदेश की अपील की इजाजत के लिए आवेदन किया जाता है, वहाँ उस निर्णय
की प्रतिलिपि अभिप्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय भी अपवर्जित कर दिया जाएगा ।
(4) किसी पंचाट के अपास्त किए जाने के लिए आवेदन को परिसीमा काल की संगणना करने में पंचाट की
प्रतिलिपि अभिप्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय अपवर्जित कर दिया जाएगा।

स्पष्टीकरण: किसी डिक्री या आदेश की प्रतिलिपि अभिप्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय की इस धारा के अधीन संगणना करने में वह समय अपवर्जित नहीं किया जाएगा जो न्यायालय ने उस डिक्री या आदेश की प्रतिलिपि के लिए आवेदन किए जाने से पूर्व डिक्री या आदेश तैयार करने में लगाया हो।

13. उन दशाओं में समय का अपवर्जन जहाँ कि अकिंचन के रूप में वाद लाने या अपील करने की इजाजत के लिए आवेदन किया गया हो- जहाँ कि अकिंचन के रूप में वाद या अपील करने की इजाजत के लिए आवेदन किया गया हो और वह प्रतिक्षेपित हो गया हो वहाँ उस वाद अथवा अपील के लिए विहित परिसीमा काल की संगणना में उतना समय अपवर्जित कर दिया जाएगा जितने समय के दौरान आवेदक उस इजाजत के लिए अपना आवेदन सद्भावपूर्वक अभियोजित करता रहा हो, तथा ऐसे वाद या अपील के लिए विहित न्यायालय फीस दे दिए जाने पर न्यायालय उस वाद या अपील को वही बल और प्रभाव रखने वाली मानकर बरतेगा मानो न्यायालय फीस प्रारम्भ में ही दे दी हो।

14. बिना अधिकारिता वाले न्यायालय में सद्भावपूर्वक की गई कार्यवाही में लगे समय का अपवर्जन-   (1) किसी वाद की परिसीमा काल की संगणना में उतना समय जितने समय के दौरान वादी चाहे प्रथम बार के चाहे अपील या पुनरीक्षण न्यायालय में प्रतिवादी के विरुद्ध अन्य सिविल कार्यवाही सम्यक् तत्परता के अभियोजित करता रहा है, अपवर्जित कर दिया जाएगा जहाँ कि वह कार्यवाही उसी विवाद्य विषय से संबंधित हो और सद्भावपूर्वक किसी ऐसे न्यायालय में अभियोजित की गई हो जो अधिकारिता की त्रुटि या वैसी ही प्रकृति के अन्य हेतुक से उसे ग्रहण करने में असमर्थ हो।

(2) किसी आवेदन के परिसीमा काल की संगणना में उतना समय, जितने के दौरान वादी चाहे प्रथम बार के अपील चाहे पुनरीक्षण न्यायालय में उसी पक्षकार के विरुद्ध उसी अनुतोष के लिए अन्य सिविल कार्यवाही सम्यक् तत्परता से अभियोजित करता रहा है, अपवर्जित कर दिया जाएगा जहाँ कि कार्यवाही सद्भावपूर्वक किसी ऐसे न्यायालय में अभियोजित की गई हो जो अधिकारिता की त्रुटि या वैसी ही प्रकृति के अन्य हेतुक से ग्रहण करने में असमर्थ हो।

(3) सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के आदेश 23 के नियम 2 में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी उपधारा (1) के उपबंध उस आदेश के नियम 1 के अधीन न्यायालय द्वारा दी गई अनुज्ञा के आधार पर संस्थित नए वाद के संबंध में लागू होंगे जहाँ कि ऐसी अनुज्ञा के आधार पर दी गई अधिकारिता में त्रुटियाँ वैसी ही प्रकृति के अन्य हेतुक से पहले बाद का असफल होना अवश्यम्भावी है।
स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजन के लिए-
(क) उस समय का अपवर्जन करने में, जिसके दौरान कोई पूर्ववर्ती सिविल कार्यवाही लंबित थी वह  दिन जिस दिन वह कार्यवाही संस्थित की गई और वह दिन, जिस दिन उसका अन्त हुआ, दोनों गिने जाएँगे;
(ख) कोई वादी या आबेदक, जो किसी अपील का प्रतिरोध कर रहा हो, कार्यवाही का अभियोजन करता हुआ समझा जाएगा;

(ग) पक्षकारों के या वाद हेतुकों के कुसंयोजन को अधिकारिता में त्रुटि जैसी प्रकृति का हेतुक समझा जाएगा ।

15. कुछ अन्य मामलों में समय का अपवर्जन- (1) किसी ऐसे वाद  के या किसी ऐसी डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन के, जिसका संस्थित या निष्पादित किया जाना किसी व्यादेश या आदेश द्वारा रोक दिया गया हो, परिसीमा काल की संगणना में, उतना समय, जितने समय ऐसा व्यादेश या आदेश बना रहा हो, वह दिन जिस दिन वह निकाला गया या किया गया था और वह दिन जिस दिन उसका प्रत्याहरण किया गया था, अपवर्जित कर दिए जाएँगे ।
(2) किसी तत्समय प्रवृत्त विधि की अपेक्षाओं के अनुसार किसी ऐसे बाद के परिसीमा काल की संगणना में, जिसकी सूचना दी गई है या जिसके लिए सरकार या किसी अन्य प्राधिकारी की पूर्व सम्मति या मंजूरी अपेक्षित है, ऐसी सूचना की कालावधि या यथास्थिति, ऐसी सम्मति अथवा मंजूरी अभिप्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय अपवर्जित कर दिया जाएगा

स्पष्टीकरण: सरकार या किसी अन्य प्राधिकारी की सम्मति या मंजूरी अभिप्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय का अपवर्जन करने में यह तारीख जिसको सम्मति अथवा मंजूरी अभिप्राप्त करने के लिए वह आवेदन किया गया था और वह तारीख जिसको सरकार या अन्य प्राधिकारी का आदेश प्राप्त हुआ था, दोनों गिनी जाएंगी।

(3) किसी व्यक्ति को दिवालिया न्यायनिर्णित करने की कार्यवाही में नियुक्त किसी रिसीवर या अन्तरिम रिसोवर द्वारा किसी कम्पनी के परिसमापन की कार्यवाही में नियुक्त किसी समापक या अंतिम समापक द्वारा किए गए किसी बाद या डिक्री के निष्पादनार्थ आवेदन के परिसीमा काल की संगणना में वह कालावधि अपवर्जित कर दी जाएगी, जो ऐसी कार्यवाही को संस्थित करने की तारीख को प्रारम्भ होकर, यथास्थिति रिसीवर या समापक की नियुक्ति की तारीख से तीन मास के अवसान पर समाप्त होती है ।

(4) किसी डिक्री के निष्पादन में हुए विक्रय में के क्रेता द्वारा कब्जे के लिए बाद के परिसीमा काल की संगणना में उतना समय अपवर्जित कर दिया जाएगा जिसके दौरान विक्रय अपास्त कराने के लिए कोई कार्यवाही अभियोजित की जाती रही हो ।

(5) किसी वाद के परिसीमा काल की संगणना में उतना समय अपवर्जित कर दिया जाएगा जिसके दौरान प्रतिवादी भारत से तथा भारत के बाहर के उन राज्यक्षेत्रों से, जो केन्द्रीय सरकार के प्रशासन के अधीन है, अनुपस्थित रहा हो।

16. वाद लाने का अधिकार प्रोद्भूत होने पर या होने के पूर्व मृत्यु हो जाने का प्रभाव-  (1)जहाँ कि कोई व्यक्ति, जिसे यदि वह  जीवित रहता तो वाद संस्थित करने या आवेदन करने का अधिकार होता, उस अधिकार के प्रोद्भूत होने के पहले मर जाए या जहां कि वाद संस्थित करने या आवेदन करने का अधिकार किसी व्यक्ति की मृत्यु पर प्रोद्भूत होता हो जहाँ परिसीमा काल की संगणना उस समय से की जाएगी जब मृतक का ऐसा विधिक प्रतिनिधि हो जाए जो ऐसा वाद संस्थित करने या आवेदन करने के लिए समर्थ हो ।

(2) जहाँ कि कोई व्यक्ति, जिसके विरुद्ध यदि वह जीवित रहता तो बाद संस्थित करने या आवेदन करने का अधिकार प्रोद्भूत हुआ होता, उस अधिकार के प्रोदभूत होने के पहले मर जाए, या जहाँ किसी व्यक्ति के विरुद्ध वाद संस्थित करने या आवेदन करने का अधिकार उसकी मृत्यु पर प्रोद्भूत होता हो, वहाँ परिसीमा काल की संगणना उस समय से की जाएगी जब मृतक का ऐसा विधिक प्रतिनिधि हो जाए जिसके विरुद्ध वादी ऐसा बाद संस्थित कर सके या आवेदन कर सके।

(3) उपधारा (1) या उपधारा (2) की कोई भी बात शुफा अधिकारों को प्रवर्तित कराने के वादों को अथवा
किसी स्थावर संपत्ति के या आनुवंशिक पद के कब्जे के वाद को लागू नहीं होती ।

17. कपट या भूल का प्रभाव- (1) जहाँ कि किसी ऐसे वाद आवेदन के मामले लिए इस अधिनियम द्वारा
कोई परिसीमा काल विहित है-

(क) वह वाद या आवेदन प्रतिवादी या प्रत्यर्थी या उसके अभिकर्ता के कपट पर आधारित है, अथवा

(ख) उस अधिकार या हक का ज्ञान, जिस पर वाद या आवेदन आधारित है, किसी यथापूर्वोक्त व्यक्ति के कपट द्वारा छिपाया गया है, अथवा

(ग) वह वाद या आवेदन किसी भूल के परिणाम से मुक्ति के लिए है, अथवा
(घ) वादी या आवेदक के अधिकार को स्थापित करने के लिए आवश्यक कोई दस्तावेज कपटपूर्वक छिपाई गई है.
वहाँ परिसीमा का चलना तब तक के बिना आरम्भ न होगा जब वादी या आवेदक को उस कपट या भूल का पता चल न जाए या सम्यक् तत्परता से पता चल सकता था, अथवा छिपाई गई दस्तावेज की दशा में तब तक के बिना आरम्भ न होगा, जबकि छिपाई गई दस्तावेज के पेश करने या उसका पेश किया जाना विवश करने के साधन वादी या आवेदक को सर्वप्रथम प्राप्त न हुए हों :

परन्तु इस धारा की कोई भी बात ऐसे सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के या उसके विरुद्ध कोई भार प्रवर्तित कराने के या तत्संबंधी किसी संव्यवहार को अपास्त कराने के बाद का संस्थित किया जाना या आवेदन का किया  जाना शक्य नहीं बनाएगी जो
(i) कपट के मामले में, किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा मूल्यवान प्रतिफलेन क्रय की गई हो जिसका न तो कपट में
कोई हाथ था, और न जो क्रय के समय यह जानता था यह विश्वास करने का कारण रखता था कि कोई कपट
किया गया है, अथवा

(ii) भूल के मामले में, उस संव्यवहार के पश्चात् जिसमें भूल की गई, ऐसे व्यक्ति द्वारा मूल्यवान प्रतिफलेन
क्रय की गई है, जो न यह जानता या विश्वास करने का कारण रखता था कि भूल की गई है, अथवा

(iii) छिपाई गई दस्तावेज के मामले में, ऐसे व्यक्ति मूल्यवान प्रतिफलेन क्रय की गई है जिसका न तो छिपाने में कोई हाथ था और न जो क्रय करने के समय यह जानता या विश्वास करने का कारण रखता था कि वह दस्तावेज छिपाई गई है।

(2) जहाँ कि किसी निर्णीत ऋणी ने किसी डिक्री या आदेश का परिसीमा काल के भीतर निष्पादन कपट या बल प्रयोग द्वारा निवारित कर दिया हो, वहाँ न्यायालय उक्त परिसीमा काल के अवसान के पश्चात् निर्णीत लेनदार द्वारा किए गए आवेदन पर डिक्री या आदेश के निष्पादन के लिए परिसीमा काल को बढ़ा सकेगा।

परन्तु यह तब जबकि ऐसा आवेदन, यथास्थिति, कपट का पता लगाने की या बल प्रयोग के बंद होने की तारीख से एक वर्ष के भीतर किया गया हो ।

18. लिखित अभिस्वीकृति का प्रभाव- (1) जहाँ कि किसी संपत्ति या अधिकार विषयक वाद या आवेदन के
लिए विहित काल के अवसान के पहले ऐसी संपत्ति या अधिकार विषयक दायित्व की लिखित अभिस्वीकृति की गई है, जो उस पक्षकार द्वारा, जिसके विरुद्ध ऐसी संपत्ति या अधिकार का दावा किया जाता है, या ऐसे किसी व्यक्ति द्वारा जिसमें वह अपना अधिकार या दायित्व व्युत्पन्न करता है, हस्ताक्षरित है वहाँ उस समय से, जब वह अभिस्वीकृति इस प्रकार हस्ताक्षरित की गई थी एक नया परिसीमा काल संगणित किया जाएगा ।
(2) जहाँ कि वह लेख जिसमें अभिस्वीकृति अन्तर्विष्ट है, बिना तारीख का है वहाँ उस समय के बारे में जब वह
हस्ताक्षरित किया गया था मौखिक साक्ष्य दिया जा सकेगा, किन्तु भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) के उपबंधों के अध्यधीन यह है कि उसकी अन्तर्वस्तु का मौखिक साक्ष्य ग्रहण नहीं किया जाएगा ।
स्पष्टीकरण – इस धारा के प्रयोजनों के लिए-
(क) अभिस्वीकृति पर्याप्त हो सकेगी यद्यपि वह उस संपत्ति या अधिकार की यथावत प्रकृति का विनिर्देश न
करती हो अथवा यह प्रकथन करती हो कि संदाय, परिदान, पालन या उपभोग का समय अभी नहीं आया है,
अथवा वह संदाय परिदान या पालन के अथवा उपभोग की अनुज्ञा के इन्कार सहित हो अथवा मुजरा के
किसी दावे से युक्त हो, अथवा उस संपत्ति या अधिकार के हकदार व्यक्ति से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति को
सम्बोधित हो;                                                            (ख)हस्ताक्षरित; शब्द से या तो स्वयं द्वारा इस निमित्त सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा हस्ताक्षरित अभिप्रेत है; तथा
(ग) वह आवेदन जो डिक्री या आदेश के निष्पादन के लिए हो किसी संपत्ति या अधिकार की बाबत आवेदन नहीं समझा जाएगा ।

19. ऋण लेखे या वसीयत सम्पदा का व्याज लेखे संदाय का प्रभाव- जहाँ कि ऋण या वसीयत सम्पदा के संदाय के लिए दावी व्यक्ति द्वारा या उसके इस निमित्त सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा कोई संदाय उस ऋण लेखे या उस वसीयत के व्याज लेखे विहित काल के अवसान के पूर्व किया जाता है, वहाँ उस समय से, जब संदाय किया गया था, नया परिसीमा काल संगणित किया जाएगा :
परन्तु उस दशा के सिवाय, जिसमें ब्याज का संदाय सन् 1928 की जनवरी के प्रथम दिन के पूर्व किया गया था यह तब होगा जब उस संदाय की अभिस्वीकृति, संदाय करने वाले व्यक्ति के हस्तलेख में या उसके द्वारा हस्ताक्षरित लेखे में हो।
स्पष्टीकरण; इस धारा के प्रयोजनों के लिए –

(क) जहाँ कि बंघकित भूमि बंधकदार के कब्जे में हो वहाँ ऐसी भूमि के भाटक या उपज की प्राप्ति संदाय मानी जाएगी ।

(ख) ऋण; के अन्तर्गत वह धन नहीं आता जो न्यायालय की डिक्री या आदेश के अधीन संदेय हो ।

20. किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अभिस्वीकृति या संदाय का प्रभाव- (1) धारा 18 तथा धारा 19 में इस निमित्त सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता पद के अन्तर्गत निर्योग्यता के अधीन व्यक्ति की दशा में उसका विधिपूर्ण संरक्षक, सुपुर्ददार या प्रबंधक या अभिस्वीकृति हस्ताक्षर करने अथवा संदाय करने के लिए ऐसे संरक्षक, सुपुर्ददार या प्रबंधक द्वारा सम्यक् रूप से प्राधिकृत अभिकर्ता आता है ।
(2) उक्त धाराओं में की गई कोई भी बात अनेक संयुक्त संविदाकर्त्ताओं, भागीदारों, निष्पादकों या बन्धकदारों में से किसी एक को उनमें से किसी अन्य या किसी अन्यों द्वारा या के अभिकर्ता द्वारा हस्ताक्षरित लिखित अभिस्वीकृति या किसी किए गए संदाय के कारण ही प्रभार्य नहीं कर देती ।

(3) उक्त धाराओं के प्रयोजनों के लिए-
(क) सम्पत्ति के किसी परिसीमित स्वामी द्वारा, जो हिन्दू विधि से शासित हो या उसके सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा किसी दायित्व की बाबत हस्ताक्षरित अभिस्वीकृति या किया गया संदाय ऐसे दायित्व को उत्तराधिकार में पाने वाले उत्तरभोगी के विरुद्ध, यथास्थिति, विधिमान्य या अभिस्वीकृति या संदाय होगा, तथा
(ख) वह अभिस्वीकृति या संदाय, जो उस अविभक्त हिन्दू कुटुम्ब के तत्समय कर्त्ता या उसके सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा किया गया है उस समस्त कुटुम्ब की ओर से किया गया समझा जाएगा, यदि किसी अविभक्त हिन्दू कुटुम्ब की उस हैसियत में उसके द्वारा या उसकी ओर से कोई दायित्व उपगत किया गया हो।

21. नया वादी या प्रतिवादी प्रतिस्थापित करने या जोड़ने का प्रभाव- (1) जहाँ कि वाद संस्थित पश्चात् कोई नया वादी या प्रतिवादी प्रतिस्थापित किया या जोड़ा जाए वहाँ वाद, जहाँ तक कि होने के उसका संबंध है, तब संस्थित किया जाएगा जब वह इस प्रकार पक्षकार बनाया गया था:
परन्तु ; जहाँ कि न्यायालय का समाधान हो जाए कि नए वादी या प्रतिवादी को अन्तर्विष्ट करने में लोप सद्भावपूर्वक की गई भूल से हुआ था, वहाँ वह यह निदेश दे सकेगा कि वाद , जहाँ तक ऐसे वादी या प्रतिवादी का संबंध है, किसी पूर्ववर्ती तारीख से संस्थित किया गया समझा जाएगा ।
(2) उपधारा (1) की कोई बात ऐसे मामले को लागू न होगी जिसमें वाद के लंबित रहने के दौरान हुए किसी हित के समनुदेशन या न्यागमन के कारण कोई पक्षकार जोड़ा या प्रतिस्थापित किया जाए या जिसमें कि वादी को प्रतिवादी या प्रतिवादी को वादी बनाया जाए।

22. चालू रहने वाले भंग और अपकृत्य–  किसी चालू रहने वाले संविदा-भंग या चालू रहने वाले अपकृत्य की
दशा में एक नया परिसीमा काल उस समय के दौरान प्रति क्षण चलना आरम्भ होता रहता है, जिसमें
यथास्थिति, ऐसा भंग या ऐसा अपकृत्य चालू रहे ।

23. उन कार्यों के लिए प्रतिकर का वाद जो विशेष नुकसान के बिना, अनुयोज्य न हों के लिए, जिसमें कोई वाद- उस कार्य के लिए जिसमे कोई वाद हेतुक तब तक उद्भूत नहीं होता जब तक उससे कोई विनिर्दिष्ट क्षति वस्तुतः नहीं होती, प्रतिकर के वाद की दशा में परिसीमा काल उस समय से संगणित किया जाएगा जब वह क्षति हो जाए ।

24.लिखतों में वर्णित समय की संगणना- सब लिखतें इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए ग्रिगोरियन कलेण्डर
को निर्दिष्ट करके लिखी गई समझी जाएँगी।

 भाग 4: कब्जे द्वारा स्वामित्व का अर्जन

25. सुखाचारों का चिरभोग द्वारा अर्जन-  (1) जहाँ कि किसी निर्माण के उपयोग के साथ साथ उसमें या उसके लिए प्रकाश या वायु के प्रवेश और उपयोग का उपभोग सुखाचार के तौर पर और साधिकार, किसी विघ्न के बिना और बीस वर्ष तक शांतिपूर्वक किया गया हो, तथा जहाँ कि किसी मार्ग का या जलसरणी का या किसी जल के उपयोग का अथवा किसी अन्य सुखाचार का चाहे (वह सकारात्मक हो या नकारात्मक) उपयोग ऐसे किसी व्यक्ति ने, जो सुखाचार के तौर पर और साधिकार उस पर हक रखने का दावा करता हो विघ्न के बिना और बीस वर्ष तक शांतिपूर्वक तथा खुले तौर पर किया गया हो वहाँ प्रकाश या वायु के ऐसे प्रवेश और
उपभोग का, या ऐसे मार्ग, जलसरणी, जल के उपयोग अथवा अन्य सुखाचार का अधिकार आत्यन्तिक और
अजेय हो जाएगा।
(2) बीस वर्ष की उक्त कालावधियों में से हर एक ऐसी कालावधि मानी जाएगी जिसका अंत उस बाद के
संस्थित किए जाने के अव्यवहित पूर्व के दो वर्ष के भीतर हुआ हो, जिसमें यह दावा जिससे ऐसी कालावधि
संबंधित है, प्रतिवादित किया जाता है।

(3) जहाँ कि वह संपत्ति, जिस पर किसी अधिकार का दावा उपधारा (1) के अधीन किया जाता है, सरकार की
हो वहाँ वह उपधारा ऐसे पढ़ी जाएगी मानो बीस वर्ष शब्दों के स्थान पर तीस वर्ष शब्द प्रतिस्थापित कर दिए गए हों ।
स्पष्टीकरण: कोई भी बात इस धारा के अर्थ के अंदर विघ्न नहीं है जबकि दावेदार से भिन्न किसी व्यक्ति के कार्य द्वारा हुई बाधा के कारण उस कब्जे के उपभोग का वास्तविक विच्छेद नहीं हो जाता और जब तक कि, उस बाधा की तथा बाधा डालने वाले या बाधा डाला जाना प्राधिकृत करने वाले व्यक्ति की सूचना दावेदार को हो जाने के पश्चात् एक वर्ष तक वह बाधा सहन न कर ली गई हो या उसके प्रति उपमति न रही हो।

26. अनुसेवी सम्पत्ति के उत्तरभोगी के पक्ष में अपवर्जन- जहाँ कि कोई भूमि या जल जिसमें, जिसके ऊपर या जिससे कोई सुखाचार उपभुक्त या व्युत्पन्न किया गया हो किसी आजीवन हित के अधीन या आधार पर या इतनी अवधि पर्यंत जो उसके अनुदत्त किए जाने से तीन वर्ष से अधिक हो धारित रहा हो, वहाँ ऐसे सुखाचार का उपभोग जितने समय तक ऐसे हित या अवधि के चालू रहने के दौरान हुआ हो, उतना समय बीस वर्ष की कालावधि की संगणना में उस दशा में, अपवर्जित कर दिया जाएगा जिसमें उस पर के दावे का प्रतिरोध ऐसे
हित] या अवधि के पर्यवसान के अव्यवहित पश्चात् तीन वर्ष के अन्दर ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाए जो ऐसे
पर्यवसान पर उक्त भूमि या जल का हकदार हो ।

27. सम्पत्ति पर के अधिकार का निर्वापित होना- उस कालावधि के पर्यावसान पर, जो किसी संपत्ति के
कब्जे का बाद संस्थित किए जाने के निमित्त किसी व्यक्ति के लिए एतद्वारा परिसीमित है, ऐसी संपत्ति पर
उसका अधिकार निर्वापित हो जाएगा ।

भाग 5 : प्रकीर्ण

28. कतिपय अधिनियमों का संशोधन- [ निरसन तथा संशोधन अधिनियम, 1974 (1974 का 56) की धारा 2 तथा पहली अनुसूची द्वारा निरसित |]

29. व्यावृत्तियाँ- (1) इस अधिनियम की कोई भी बात भारतीय संविदाअधिनियम, 1872 (1872 का 9) की धारा 25 पर प्रभाव नहीं डालेगी ।
(2) जहाँ कि कोई विशेष या स्थानीय विधि किसी वाद, अपील या आवेदन के लिए कोई ऐसा परिसीमा काल विहित करती है जो अनुसूची द्वारा विहित परिसीमा काल से भिन्न है वहाँ धारा 3 के उपबंध ऐसे लागू होंगे मानों वह परिसीमा काल अनुसूची द्वारा विहित परिसीमा काल हो तथा किसी बाद, अपील या आवेदन के निमित्त किसी विशेष या स्थानीय विधि द्वारा विहित परिसीमा काल का अवधारण करने के प्रयोजन के लिए, धारा 4 से धारा 24 तक के (जिनके अन्तर्गत ये दोनों धाराएँ भी आती हैं) उपबंध केवल वहीं तक और उसी विस्तार तक लागू होंगे जहाँ तक और जिस विस्तार तक वे उस विशेष या स्थानीय विधि द्वारा अभिव्यक्त तौर पर अपवर्जित न हों।  (3) विवाह और विवाह विच्छेद विषयक किसी तत्समय प्रवृत्त विधि में अन्यथा उपबंधित के सिवाय इस अधिनियम की कोई भी बात ऐसी किसी विधि के अधीन के किसी वाद या अन्य कार्यवाही को लागू होगी ।
(4) धाराएँ 25 और 26 तथा धारा 2 में की सुखाचार की परिभाषा, उन राज्यक्षेत्रों में उद्भूत मामलों में लागू नहीं होगी जिन पर भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882 (1882 का 5) का तत्समय विस्तार हो।

30. उन वादों आदि के उपबंध जिनके लिए विहित कालावधि इंडियन लिमिटेशन एक्ट, 1908 द्वारा विहित कालावधि से कम है- इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी-
(क) कोई भी वाद, जिसके लिए परिसीमा काल इंडियन लिमिटेशन एक्ट, 1908 1908 का 9) द्वारा विहित
परिसीमा काल से कम है; इस अधिनियम के प्रारंभ होने के अव्यवहित पश्चात्वर्ती सात वर्ष की कालावधि
और ऐसे बाद के लिए इंडियन लिमिटेशन एक्ट, 1908 (1908 का 9) द्वारा विहित परिसीमा काल, इन दोनों में
से जिसका भी अवसान पहले हो जाए उसके भीतर संस्थित किया जा सकेगा : परन्तु यदि किसी ऐसे बाद की
बाबत सात वर्ष की उक्त कालावधि का अवसान, उसके लिए इंडियन लिमिटेशन एक्ट, 1908 (1908 का 9)
के अधीन विहित परिसीमा काल के पहले हो जाए, और ऐसे बाद के बाबत इंडियन लिमिटेशन एक्ट, 1908
(1908 का 9) के अधीन उतने परिसीमा काल के सहित, जिसका अवसान इस अधिनियम के प्रारंभ के पहले
हो गया हो, सात वर्ष की उक्त कालावधि ऐसे वाद के लिए इस अधिनियम के अधीन उसके लिए विहित
कालावधि से कम हो तो वह बाद इस अधिनियम के अधीन विहित परिसीमा काल के भीतर संस्थित किया
जा सकेगा;
(ख) कोई भी अपील या आवेदन, जिसके लिए परिसीमा काल इंडियन लिमिटेशन एक्ट, 1908 (1908 का 9)
द्वारा विहित परिसीमा काल से कम है, इस अधिनियम के प्रारंभ होने से अव्यवहित पश्चात्वर्ती नब्बे दिन की
कालावधि और ऐसी अपील या आवेदन के लिए इंडियन लिमिटेशन एक्ट, 1908 द्वारा विहित परिसीमा
काल में से, जिसका भी अवसान पहले हो जाए, उसके भीतर किया जा सकेगा।

31. वर्जित या लंबित वादों आदि के बारे में उपबंध- इस अधिनियम की कोई भी बात-

(क) ऐसे किसी भी वाद, अपील या आवेदन का संस्थित या किया जाना शक्य नहीं करेगी जिसके लिए इंडियन लिमिटेशन एक्ट, 1908 (1908 का 9) द्वारा विहित परिसीमा काल का अवसान इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पहले हो गया हो; अथवा                                  (ख) ऐसे प्रारम्भ के पूर्व संस्थित या किए गए और ऐसे प्रारम्भ के समय लम्बित किसी भी वाद, अपील या आवेदन पर प्रभाव न डालेगी ।

32. [ निरसन ]- निरसन तथा संशोधन अधिनियम 1974 (1974 का 56) की धारा 2 तथा पहली अनुसूची द्वारा निरसित।

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